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________________ ॐ निर्जरा का मुख्य कारण : सुख-दुःख में समभाव 8 ९ ® और अयथार्थ है कि अमुक व्यक्ति ने मुझे सुख दिया और अमुक व्यक्ति ने दुःख दिया। सम्यग्दृष्टि और समतायोगी साधक अपने सुख और दुःख को दूसरे पर आरोपित नहीं करता। किन्तु स्थूलदृष्टि एवं विषमता के बीहड़ में भटकने वाला प्राणी प्रायः यही कहता है-उसने मुझे दुःखी बना दिया अथवा उसने मुझे सुखी कर दिया। यह मिथ्या भ्रम है। आदमी प्रायः अपने आप को, अपने उपादान को न देखकर ही ऐसी बात कहता और सोचता है। उसे इस तथ्य को समझने में बहुत ही कठिनाई होती है कि दूसरा कोई पदार्थ, विषय या प्राणी स्वयं को सुखी या दुःखी नहीं कर सकता। यह भ्रम इसलिए पैदा होता है कि व्यक्ति दूसरे के द्वारा सुख या दुःख के साधन जुटाते देखकर यह मान लेता है कि यह व्यक्ति मुझे सुख या दुःख देने वाला है अथवा इसने मुझे सुख या दुःख दिया। यद्यपि दूसरा व्यक्ति भी भ्रान्तिवश यह समझकर रौद्रध्यानवेश दूसरों को सुखी या दुःखी करने की कल्पना कर सकता है, प्लान बना सकता है, षड्यंत्र कर सकता है, किसी को सुख देना भी चाह सकता है और दुःख देने की भी इच्छा कर सकता है; किन्तु यह उसके वश की बात नहीं है कि वह किसी को दुःख या सुख दे सके। वह केवल सुख के साधनों को भी जुटा सकता है, दुःख के साधनों को भी। वह दुःख प्राप्त होने के वातावरण, संयोग और परिस्थिति का निर्माण कर सकता है, इसी प्रकार सुख प्राप्त होने के वातावरण, संयोग और परिस्थिति का भी सृजन कर सकता है, मगर व्यक्ति अगर उस दुःख अथवा सुख के वातावरण, परिस्थिति और संयोग में भी स्वयं को दुःख या सुख से संलग्न न करे, उसमें लिप्त या मूढ़ न बने, उसे स्वीकार न करे तो कोई कारण नहीं कि वह व्यक्ति (निमित्त) उसे सुख या दुःख दे दे या सुखी अथवा दुःखी कर दे। दूसरा व्यक्ति पदार्थ या इन्द्रिय और मन का विषय केवल निमित्त बन सकता है, इससे आगे उसकी सीमा समाप्त हो जाती है कि वह उसे सुख या दुःख दे दे। गाली स्वीकार ही न करे, तो गाली देने वाला उसे दुःखी नहीं कर सकता - गाली देना या अपमान करना दुःख का साधन है, स्थूलदृष्टि वाला व्यक्ति सोचता है, मैं इसे गाली देकर या अपमानित करके दुःखी कर दूंगा, किन्तु सामने वाला व्यक्ति यदि उस गाली या अपमान को स्वीकार ही न करे तो वह कैसे दुःखी हो जायेगा? तथागत बुद्ध को एक व्यक्ति ने गाली दी। तथागत उससे बिलकुल विक्षुब्ध न हुए, चुप रहे। जब वह व्यक्ति अनेक गालियाँ देकर चुप हो गया, तब तथागत बुद्ध ने उससे कहा-“भाई ! यह बताओ कि कोई दुकानदार ग्राहक को अनेक चीजें बतलाता है और खरीदने के लिए कहता है, किन्तु ग्राहक उन चीजों को ले नहीं, खरीदे नहीं तो वह चीज किसके पास रहेगी?" वह बोला-“वह चीज दुकानदार के पास ही रहेगी।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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