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________________ ८ कर्मविज्ञान : भाग ८ धर्मकला : कब और कब नहीं ? उक्त परन्तु आज तो असातावेदनीय कर्म का उदय होते ही आदमी दुःख का वेदन करने लगता है। व्याधि आते ही मन के गगन में सन्ताप, कष्ट, दुःख और दैन्य के घनघोर बादल मँडराने लगते हैं। कैंसर, एड्स, हार्ट या टी. बी. की भयंकर बीमारियाँ होने पर या उनका नाम सुनने पर मनुष्य भय से काँपने लगता है। रोगजन्य वेदना को समभाव से भोगने के बजाय वह तड़फने लगता है । पूर्वकृत अशुभ कर्मों के उदय में आने पर दुःख भोगना पड़े तो समभावपूर्वक भोगे, दुःख के वेदन में आदमी दुःखी न हो, तभी वह धर्मकला कहलाएगी, ऐसी परिस्थिति में भी व्यक्ति की मनःस्थिति शान्त, सहनशील रहेगी। इसके विपरीत सुख और दुःख, इन दोनों स्थितियों में जो सम रहना नहीं जानता, आसक्ति और घृणा, अशान्ति और दुःखमूलक पीड़ा से मुक्त रहने का अभ्यासी नहीं है, वह न समताधर्म की कला जानता है, न जीवन की कला से अभ्यस्त है और न ही वह कर्मबन्ध से आंशिक मुक्तिरूप निर्जरा की कला जानता है। यह कर्मफल को समभाव से भोगने की कला में माहिर है। जो इस कला को जान लेता है, प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न, शान्त और सुखी रह सकता है। जीवन में कठिनाइयों, बीमारियों एवं समस्याओं में भी वह स्वस्थ एवं प्रसन्न रह सकता है । अध्यात्मयोगी श्रीमद् राजचन्द्र की इस उक्ति में इसी तथ्य का प्रतिपादन है - वह · "सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे, लेश ए लक्षे लहो । "" मन के अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में सुख-दुःख की कल्पना करना मिथ्या है माना कि मनुष्य सुख से जीना चाहता है । मनुष्य ही क्यों, प्राणिमात्र भी जीना चाहते हैं, दुःख उनको अच्छा नहीं लगता परन्तु सुख किसमें है? सुख प्राप्त होता है ? इस बात को अन्य प्राणी तो क्या, प्राणियों में सर्वाधिक विकसित चेतनाशील बुद्धिमान् मानव भी नहीं समझता । पाँचों इन्द्रियों के विषय अपने मन के अनुकूल हों तो सुख और मन के प्रतिकूल हों तो दुःख का अनुभव करता है। वास्तव में सुख और दुःख किसी भी पदार्थ या विषय में नहीं रखा हुआ है। पदार्थ या विषय की प्राप्ति होने पर प्रिय-अप्रिय, शुभ-अशुभ, अनुकूल-प्रतिकूल, अच्छे-बुरे की जो कल्पना मन कर लेता है, उसे ही सुखरूप या दुःखरूप मान लिया जाता है। वस्तुतः कोई भी पर-पदार्थ या इन्द्रिय-विषय अपने आप में सुखदाता या दुःखदाता नहीं होता । Jain Education International सुख For Personal & Private Use Only से कोई भी जीव किसी दूसरे को सुख या दुःख नहीं दे सकता इसी प्रकार जैन - कर्मविज्ञान का यह सिद्धान्त भी उतना ही सत्य है कि इस समग्र विश्व में कोई भी प्राणी किसी को सुख या दुःख दे नहीं सकता। यह मानना भ्रान्तिपूर्ण १. श्रीमद् राजचन्द्र का तत्त्वचिन्तनात्मक पद्य कैसे www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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