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________________ ॐ १० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * गौतम बुद्ध-“तो भाई ! तुमने मुझे ये गालियाँ दीं, परन्तु मैंने ये ली नहीं, स्वीकार नहीं की तो ये तुम्हारे पास ही रहेंगी न?" और उन्होंने इस श्लोक के द्वारा अपना अभिप्राय उसे बता दिया “ददतु ददतु गालिर्गालिमन्तो भवन्तः। वयमिह तदभावात् तद्दानेऽप्यसमर्थाः॥" -आप गाली वाले हैं, इसलिए आप गाली भले ही दें, हम उन्हें लेने को तत्पर नहीं हैं। हमारे पास गालियाँ नहीं हैं, इसलिए हम आपको (उन गालियों के बदले में) गालियाँ देने में असमर्थ हैं। स्पष्ट है, दूसरा व्यक्ति तथागत बुद्ध को गालियाँ देकर दुःखी करना चाहता था, लेकिन उन्होंने उन गालियों को स्वीकार नहीं किया, इसलिए वे दुःखी नहीं हुए। दुःख के वातावरण में समभाव रखे तो संवर-निर्जरा कर सकता है अतएव यह तथ्य समझ लेना चाहिए कि दुःख के वातावरण, संयोग, निमित्त या परिस्थिति दूसरे व्यक्ति या पदार्थ द्वारा प्रस्तुत करने पर या होने पर भी, जो व्यक्ति तुरन्त अपने आप को सँभालकर पूर्वोक्त सिद्धान्त के अनुसार उसे स्वीकार नहीं करता वह संवर अर्जित कर सकता है और समताभाव में स्थित रहकर सकामनिर्जरा भी कर सकता है। जैनदर्शन का यह प्रसिद्ध सूत्र है-"अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य।'-सुखों और दुःखों की कर्ता और विकर्ता अपनी आत्मा ही है (दूसरा कोई नहीं)। यदि दूसरा कोई व्यक्ति सुख और दुःख का कर्ता होता तो भगवान महावीर द्वारा अनुभूत और प्ररूपित यह सिद्धान्त गलत हो जाता। यह सिद्धान्त यथार्थ है, अकाट्य है। स्थूलदृष्टि-परायण या अतत्त्वज्ञ व्यक्ति ही ज्ञाता-द्रष्टा समभावी साधक के लिए दूसरे के द्वारा दुःख, कष्ट या वेदना का वातावरण, संयोग, निमित्त या परिस्थिति उत्पन्न करते देखकर यह सोच लेते हैं कि इस साधक को इसने कितना दुःखी कर दिया, किन्तु वह समभावी साधक क्या सोचता है ? यही महत्त्वपूर्ण है। वह संवर-निर्जरा तत्त्वों का ज्ञाता साधक अपने पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों के क्षय करने का अवसर प्रदान करके कर्ममुक्ति के द्वारा मोक्ष के अव्याबाध अनन्त शाश्वत-सुख में सहायक एवं उपकारी निमित्त मानता है। वह उक्त दुःख के वातावरण को समभाव से सह (भोग) कर कर्मनिर्जरा कर लेता है, द्रव्य-भाव-संवर तो वह पहले ही मोर्चे पर कर लेता है। ___ गजसुकुमाल मुनि महाकाल श्मशान में कायोत्सर्ग करके (ध्यानमुद्रा में) खड़े हैं। सोमल नामक विप्र वहाँ यज्ञ-सामग्री लेने आया। वहाँ गजसुकुमाल को मुनि अवस्था में ध्यानस्थ देखकर पूर्व-भव में बाँधे हुए वैर का प्रतिशोध लेने की तीव्रता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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