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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता ॐ २६९ . इन चारों साधक तत्त्वों के अवलम्बन से मोक्षपुरुषार्थ में शीघ्र गति और प्रतीति के लिए ज्ञानी पुरुषों की शिक्षा के अनुसार अथवा वीतराग पुरुषों की आज्ञानुरूप विचरण करना चाहिए।' धर्मपुरुषार्थ : कुछ भ्रान्तियाँ और निराकरण धर्मपुरुषार्थ के विषय में कुछ भ्रान्तियाँ हैं। कुछ लोग आत्मा के वस्तु स्वभाव अहिंसादि या ज्ञानादि स्वभाव को धर्म न मानकर यानी जिनसे कर्मक्षय होता हैसंवर-निर्जरा होती है, उस शुद्धोपयोग को धर्म न मानकर पुण्य कार्यों को धर्म मानते हैं। परन्तु मोक्षपुरुषार्थ के परिप्रेक्ष्य में संवर-निर्जरारूप या सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्मपुरुषार्थ ही अभीष्ट है, ग्राह्य है। धर्मपरुषार्थ की साधारण जनता में तीन परिभाषाएँ परिलक्षित होती हैं(१) लौकिक हित के नैतिकतापूर्ण कार्य या कर्त्तव्य, (२) पुण्य कार्य, अथवा (३) मैत्री आदि भावों से भावित चित्त के द्वारा जो लोकमंगल के कार्य करना। अर्थात् मैत्रीभाव, पारस्परिक हित-चिन्तन, कर्तव्यदृष्टि, पूज्यभाव आदि भावों से युक्त होकर सेवा, शिक्षण, चिकित्सा, जीवनयापन में सहायता, दानादि लोकमंगल के कार्य करना। प्रथम परिभाषा में सामूहिक हित को, दूसरी परिभाषा में कर्ता के शुभ भाव को और तीसरी परिभाषा में कर्ता के शुभ भाव और लोक-कल्याण दोनों को प्रमुखता दी गई है। ___ अर्थ और कामपुरुषार्थ भी धर्मलक्षी हो, मोक्षाशामूलक हो सामान्यतया अर्थपुरुषार्थ उसे कहा जाता है-जिन साधनों या पदार्थों से सुखपूर्वक जीवन-निर्वाह हो सके, उनका नीतिपूर्वक या धर्मदृष्टि से अर्जित या प्राप्त करना अर्थपुरुषार्थ है। जबकि देह और मन की सुख-सुविधा के लिए नीतिपूर्वक या अनिवार्य आवश्यकतानुसार यथोचित मर्यादा इन्द्रियों के शब्दादि पाँच विषयों का सेवन करना कामपुरुषार्थ है। जहाँ दूसरों से छीन, लूटकर, शोषण करके या अन्याय-अनीति से अमर्यादित अर्थ अर्जित या प्राप्त किया जाता है, वहाँ अर्थपुरुषार्थ का अतिरेक है, इसी प्रकार जहाँ इन्द्रियों में ग्लानि और देह में आधि-व्याधि-उपाधि हो, अन्याय-अनीतिअमर्यादा से युक्त होकर काम का सेवन किया जाता है, वहाँ कामपुरुषार्थ का अतिरेक है। जिन-जिन कृत्यों या साधनों से जीव कर्मरूप कालुष्य से राग-द्वेष और कषायों से अथवा भव-परम्परा से मुक्त होता है, उन कृत्यों या साधनों का सेवन करना मोक्षपुरुषार्थ है। मोक्ष के दो रूप हैं-द्रव्यतः और भावतः। सकल कर्मों का क्षय द्रव्यतः मोक्ष है और समस्त विकारी वैभाविक पर-भावों का नाश होकर स्वभावों में अंवस्थान होना भावतः मोक्ष है। पूर्वोक्त तीनों पुरुषार्थ मोक्षपुरुषार्थानुलक्षी हो, तभी मोक्ष के लिए किया गया पुरुषार्थ सफल होता है। १. 'मोक्खपुरिसत्थो' से भाव ग्रहण, पृ. १५ २. वही, पृ. ३-५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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