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________________ 8 निर्जरा का मुख्य कारण : सुख-दुःख में समभाव * ७ 8 फलस्वरूप रोगों का भयंकर दुःख आ पड़ने पर भी वे चिकित्सा से उपरत होकर समभाव की साधना में डूब गए। उनके मन में अव शरीर के प्रति प्रियता-अप्रियता का भाव नहीं रहा। ___ सनत्कुमार चक्रवर्ती को पूर्वकृत शुभ कर्म के पुण्य-फलस्वरूप उत्कृष्ट रूप सुख मिला, जिसके अहंकार से पापकर्मवन्ध होकर उसके उदय में आने पर रोग का दुःख प्राप्त हुआ। मगर रोग-दुःखरूप फल को समभाव से भोगने की धर्मकला उन्हें हम्तगत हो गई। उनकी समभाव से दुःखरूप फल भोगने की धर्मकला की परीक्षा करने हेतु वही देव वृद्ध ब्राह्मण वैद्य का रूप बनाकर आया। मुनि से निवेदन किया-“मैं एक कुशल वैद्य हूँ। आप कुष्ट जैसे भयंकर रोग से ग्रस्त हैं। मुझे चिकित्सा करने की आज्ञा दीजिए, ताकि मैं भी सेवा का लाभ ले सकूँ।" सनत्कुमार-"वैद्यप्रवर ! मुझे अब चिकित्सा की आवश्यकता नहीं है। मैं अपनी आध्यात्मिक औषध-सेवन करके चिकित्सा कर रहा हूँ। जिससे कर्मरोग मिटने पर स्वतः सुख-शान्ति और आनन्द-मंगल हो जायेगा।" वैद्य ने पुनः आग्रह करते हुए कहा-“आपका शारीरिक रोग मिटाने की तो हमें अनुमति दीजिए।" सनत्कुमार ने कहा-“आप क्या चिकित्सा करेंगे? यह देखिये यों कहकर मुनि ने अपनी उँगली मुँह में डाली जहाँ कोढ़ झर रहा था, उस पर थूक के छींटे डाले। जिससे देखते ही देखते वहाँ का रूप कंचन-सा बन गया। वैद्य स्तब्ध हो गया यह देखकर। मुनि सोचते थे-मेरे द्वारा कृत अशुभ कर्मों का यह विपाक है, जिसे समभाव से भोगकर नष्ट करना है। इसके दुःख से मैं क्यों दुःखी होऊँ। दुःख शरीर को हो रहा है, मुझे (आत्मा को) नहीं।" इस प्रकार के आत्म-शुद्धि के भावों से धर्मकला के प्रयोग से उनको कर्मनिर्जरा (कर्मों का क्षय) हो गई। वस्तुतः अशुभ कर्मों का दुःखरूप विपाक प्राप्त होने पर यानी दुःख के (रोगादि रूप में) आ पड़ने पर दुःखी न होकर समभाव से उसे भोग लेना धर्मकला को जाने बिना नहीं हो सकता। आज के अधिकांश मानव धर्मकला से अनभिज्ञ वर्तमान युग के अधिकांश मानव उस दुःख को समभाव से सहने की धर्मकला से अनभिज्ञ, अपरिचित, अनभ्यस्त और अरुचि लाने वाले हैं। इसी कारण उनके सामने अगणित समस्याएँ मुँहबाए खड़ी रहती हैं। थोड़ा-सा ज्वर आ गया, पेट दुखने लगा कि व्यक्ति हायतोबा मचाने लगता है, वैद्य-डॉक्टरों के दरवाजे खटखटाता है। वह यह नहीं सोचता कि “यह तो क्या, इससे भी भयंकर रोग मेरे द्वारा ही किये गए अशुभ (पाप) कर्म के फल हैं, मुझे इन्हें समभावपूर्वक भोग लेने चाहिए।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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