SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ कर्मविज्ञान : भाग ८ ४ सनत्कुमार चक्रवर्ती को भयंकर रोगरूप- दुःख प्राप्त हुआ सनत्कुमार चक्रवर्ती को शरीर - सौन्दर्य का अहंकार था और अपने रूप की प्रशंसा सुनने में उसे सुखानुभव होता था । इस शरीर में हाड़-माँस, मल-मूत्र आदि . घिनौने पदार्थ भरे हुए हैं, यह जानते हुए भी व्यक्ति शरीर-सौन्दर्य को पुण्य का सुखरूप फल मानकर अहंकार में डूबा रहता है। चक्रवर्ती के सौन्दर्य की महिमा स्वर्ग तक पहुँच गई थी। एक देव बूढ़े ब्राह्मण का रूप बनाकर उनका सौन्दर्य देखने आया । ब्राह्मणरूपधारी देव की प्रार्थना पर चक्रवर्ती ने उसे दर्शन देना स्वीकार किया। विप्ररूपधारी देव टकटकी लगाकर उसके सौन्दर्य को देखने लगा। चक्रवर्ती, ने कहा- “अजी ! तुम मेरे सौन्दर्य को अभी क्या देखते हो ? जब मैं स्नान करके राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सजधजकर राजसभा में रत्नजटित सिंहासन पर बैदूँ, तब मेरा सौन्दर्य देखना, तुम्हारे नेत्र और अन्तःकरण तृप्त हो जायेंगे ।" चक्रवर्ती के आदेश से ब्राह्मणरूपधारी देव को ठहरने आदि की व्यवस्था कर दी गई। जब सनत्कुमार चक्रवर्ती विशेष रूप से सुसज्जित होकर राजसभा में पहुँचा, सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् उसने ब्राह्मण को सादर बुलाया । चक्रवर्ती की देखते ही ब्राह्मण का माथा ठनका। ब्राह्मण की उदासीन मुखमुद्रा देखकर चक्रवर्ती ने पूछा - " क्या अभी मेरा सौन्दर्य सुबह की अपेक्षा बढ़कर नहीं है? अभी तुम्हें क्या हो गया ? मेरे रूप को देखकर तुम उदासीन क्यों हो गए ?” ब्राह्मण - "सुबह जैसी सुन्दरता अब नहीं है। अभी आपकी सारी सुन्दरता लुप्त हो गई है।” चक्रवर्ती-“वाह ! क्या बात करते हो ? सुबह जब मैं साधारण स्थिति में था, तब तुम्हें सुन्दर लग रहा था और अब विशेष साजसज्जा से युक्त हूँ, तब कहते हो, वह सौन्दर्य गायब हो गया है। आश्चर्य है ! जरा निकट आकर अच्छी तरह देखो।” ब्राह्मण-‘“देख लिया, महाराज ! अब वह रूप विकृत हो चुका है। विश्वास न हो तो पीकदानी मँगवाकर उसमें थूककर देखें । " चक्रवर्ती ने पीकदानी मँगवाई, उसमें धूका तो अनेक कीड़े कुलबुलाते हुए दिखाई दिये । सनत्कुमार ने साश्चर्य पूछा - " ऐसा क्यों हुआ, विप्रवर?" ब्राह्मण - "महाराज ! आपके शरीर में १६ भयंकर रोग उत्पन्न हो गये हैं। आपका रूप अब नष्टप्रायः हो चुका है।" यह था सौन्दर्य-सुख के अहंकार से रोगरूप दुःख को आमंत्रण ! रोगरूप दुःख को समभाव से सहने से कर्मनिर्जरा का अलभ्य लाभ यह देखकर सनत्कुमार चक्रवर्ती का सौन्दर्य-दर्प चूर-चूर हो गया । मन विरक्ति से ओतप्रोत हो गया। ओह ! इस कंचनवर्णी काया की ऐसी दशा ! वे राज्य का त्याग कर निर्ग्रन्थ मुनि बन गए, अपने आत्म-स्वरूप में लीन हो गए। पापकर्म के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy