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________________ निर्जरा का मुख्य कारण: सुख-दुःख में समभाव ४५ पूर्व-जन्मों के भ्राता = साथी चित्त मुनि के जीव ( निर्ग्रन्थ साधु) द्वारा अनेक प्रकार से समझाने पर भी उसने उनकी बात विलकुल नहीं मानी; प्रत्युत पुण्य के सुखरूप फल में गाढ़ आसक्त वन गया। यहाँ तक कि आर्यकर्म भी करने को तैयार न हुआ । फलतः वहाँ से मरकर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त नरक का मेहमान बना । यह था पुण्य के सुखरूप फल भोगते समय समभावरूप धर्म (निर्जरा) की कला न जानने-सीखने या अपनाने से भविष्य में होने वाला दुष्परिणाम ।' सुखरूप फल भोगते समय सुखासक्त होना दुःख को आमंत्रित करना है निष्कर्ष यह है कि पूर्वकृत शुभ कर्मों के फलस्वरूप पुण्य का उदय यानी सातावेदनीय कर्म का उदय होने पर सुखभोग प्राप्त होते हैं, उस समय व्यक्ति उसे समभाव से भोगे, उस सुख में इतना आसक्त न हो तथा उसे भोगने में अहंकारवश् लिप्त न हो, जिससे वह पुण्यफल का भोग सघन पापकर्मबन्ध का कारण बने। अधिकांश लोग सुखरूप फल को छोड़ नहीं सकते, यहाँ तक कि बड़े सुख को छोड़ना तो दूर रहा, खाने-पीने - पहनने के छोटे सुख को छोड़ना भी नहीं चाहते । इससे यह बोध लेना चाहिए कि पुण्य के सुखरूप फल को भोगकर सुखासक्त होना दुःखरूप फल को आमंत्रण देना है। सुख-सुविधावादी लोगों का कुतर्क उन्हें दुःख के गर्त्त में डालता है उनका भौतिक सुख-सुविधावादी लोगों का प्रायः यह कहना है कि मनुष्य जन्म मिला किसलिए है? जब सुख के साधन मिले हैं तो खाना-पीना और मौज उड़ाना चाहिए। उसे सुखमय जीवन जीना चाहिए; जो भी मनोज्ञ पदार्थ मिलें, उपभोग बेखटके करना चाहिए। वे तर्क करते हैं ये भोग्य पदार्थ भगवान ने बनाये किसलिए हैं? हम इन सब पदार्थों को नहीं भोगेंगे तो ऐसे ही पड़े-पड़े बर्बाद हो जायेंगे। संत लोग तो कहते रहते हैं - शराब, माँस, अंडे, व्यभिचार, अनाचार आदि का त्याग करो। इनके त्याग के उपदेश को मान लें तो हम सदा दुःख, अभाव और असुविधा का जीवन जीते रहेंगे, दूसरे सुखी लोगों को देख-देखकर तरसते रहेंगे। इससे अच्छा है, हम स्वयं सुख-सुविधाओं को भोगें, जो पुण्यफल के रूप में प्राप्त हुए हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि पुण्यफल भोगने के साथ-साथ विवेक और समभाव न हुआ तो पाप का फल भी अवश्य जुड़ा हुआ है। पुण्यफल को आसक्तिपूर्वक भोगने वाले को पापफल भोगने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। सुख भोगने की जितनी तत्परता है, उतनी ही दुःख भोगने की तैयारी होनी चाहिए। १. देखें - उत्तराध्ययनसूत्र के १३ वें अध्ययन में चित्त-संभूति जीवन-वृत्तान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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