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________________ ॐ ४ कर्मविज्ञान : भाग ८ बाजारों में घूमकर आ गया। आते ही चक्रवर्ती भरत ने पूछा “वताओ, तुमने नगर के बाजारों में क्या-क्या देखा, क्या-क्या सुना?'' उसने कहा- मैं तो केवल मौत को ही देख-सुन रहा था। मैंने केवल मृत्यु का ही गीत सुना। बाजारों में न कुछ देखा, न ही कुछ सुना। आपकी कठोर शर्त को पूरी करनी थी।'' । सब व्यवहार करता हुआ भी मैं अलिप्त रहता हूँ। भरत चक्रवर्ती ने इस आदेश का रहस्योदघाटन करते हुए कहा--"भाई ! तुम्हारे सामने एक मृत्यु का प्रश्न था, फिर भी तुम्हारा रस न तो गाना सुनने में था, न नाटक देखने और नाच-गान में था। तुम्हारा सारा ही रस मृत्यु से बचने में जुटा हुआ था। यही स्थिति मेरी है। मैं इतने बड़े राज्य का संचालन कर रहा हूँ, किन्तु मेरा रस न तो राज्य में है, न ही सुखभोगों में है, पुण्य के फलस्वरूप मुझे जो पदार्थ मिले हैं, उनमें भी मुझे कोई आसक्ति नहीं है। पुण्यफल के भोगने में भी मुझे कोई रस नहीं है। मेरा रस इस पुण्य-बन्धन से भी छुटकारा पाने में है। मेरे मन-मस्तिष्क में रात-दिन कर्मबन्ध से मुक्त होने का प्रश्न मँडराता रहता है। इसलिए मैं जीवन के समस्त व्यवहारों को चलाते हुए भी निर्लिप्त रहता हूँ।" स्पष्ट है कि पुण्य के फल भोगते समय जो आदमी सुखासक्त नहीं होता, वही धर्मकला-कर्मबन्ध से मुक्त होने की कला जानता है। सुखरूप फल प्राप्त होने पर सुखासक्त होने का परिणाम ___ परन्तु वर्तमानकाल के सुख-सुविधावादी लोगों का कहना है कि पुण्य का सुखरूप फल मिले, उसको न भोगकर हम ठुकरा दें और सुखात्मक (सुखी) न बनें, यह कैसे हो सकता है? जबकि वर्तमान के अधिकांश मानव सुखी जीवन जीना चाहते हैं ? परन्तु एक बात निश्चित है कि सुखरूप फल भोगते समय मन में समभाव न हो, निर्लिप्तता का भाव न हो तो वह व्यक्ति राग के बन्धन में पड़ेगा और जब उसके मन के विपरीत दुःखरूप फल मिलेगा, उसे भोगते समय द्वेष के बन्धन में पड़ेगा ही; अतः उक्त राग-द्वेष से अशुभ (पाप) कर्म का बन्ध होगा, जिसके उदय में आने पर दुःखरूप फल भोगना ही पड़ेगा। सुखभोगासक्त होने से अन्त में नरक-दुःखों की प्राप्ति ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को पूर्व-जन्म में सम्भूति मुनि के भव में, अपनी तपस्या के फलस्वरूप चक्रवर्तीपद-प्राप्ति के निदान (नियाणा) करने से अगने जन्म में चक्रवर्तीपद मिला। उसी पुण्यपद के फलस्वरूप उसे सभी कामभोगों के साधन, वैभव एवं सुख-सुविधाएँ प्राप्त हुईं। परन्तु पुण्य का फल भोगते समय-वह अहंकार और सुख की आसक्ति में लिप्त हो गया, इतना मोहमूढ़ बन गया कि उसके पाँच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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