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________________ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं? 9 २२३ 8 और उनके जीवन के संस्मरण मन-मस्तिष्क में चलचित्र की तरह घूमने लगते हैं, वही व्यक्ति के हृदय में वीरता की बिजली भर देता है। इसी प्रकार अरिहन्त और सिद्ध-परमात्मा की भक्ति उनका श्रद्धापूर्वक नाम-स्मरण, बहुमान, आदर एवं गुणगान, उपासना, स्तुति आदि के रूप में करने से भी व्यक्ति अर्हत्पद या सिद्धपद प्राप्त कर सकता है, वशर्ते कि वह अपनी आत्मा में वैसे ही आध्यात्मिक आदर्श की भावना भरे, उन्हीं का ध्यान, नाम-स्मरण, गुण-रटन करे, उनके जैसे ही स्व-भाव में या शुद्ध आत्म-गुणों में रमण करने का पुरुषार्थ करे। इसी तथ्य का समर्थन करते हुए उपाध्याय श्री देवचन्द्र जी कहते हैं __“अजकुलगत केशरी लहे रे, निजपद सिंह निहाल। तिय प्रभु भक्ते भवी लहे रे, आतमशक्ति संभाल॥" एक सिंह-शिशु अपनी माँ से बिछुड़कर झाड़ी में दुबककर बैठा था। सन्ध्या के झुटपुटे में एक गड़रिया अपनी भेड़ों को हाँकता हुआ उधर से जा रहा था। अँधेरे में उसे ऐसा मालूम हुआ कि यहाँ भेड़ का बच्चा छिपा हुआ है। उसने हलके हाथों से लाठी के दो-चार प्रहार किये। अतः सिंह का बच्चा भयभीत होकर झाड़ी से बाहर निकला और पास ही खड़े भेड़ों के झुण्ड में शामिल हो गया। वह स्वयं को भेड़ का बच्चा समझकर भेड़ों की तरह सब चेष्टाएँ करने लगा। गड़रिये ने उसे पाल लिया और भेड़ों की तरह ही लाठी से उसे हाँकता था। एक दिन वह सब भेड़ों तथा सिंह-शिशु को लेकर नदी के किनारे आया। नदी के उस पार बब्बर शेर खड़ा था। बब्बर शेर ने जोर से गर्जना की। सिंह-शिशु ने नदी के पानी में अपना चेहरा देखा तो उसे भी अपने स्वरूप का भान हो गया कि मेरी आकृति और प्रकृति तो इस बब्बर शेर की-सी है। उस सिंह-शिशु को अपने स्वरूप का भान होते ही उसने जोर से दहाड़ मारी, उसका भेड़पन भाग गया, उसमें सिंह-सी वीरता आ गई। वह भी सिंह के समान दहाड़ता हुआ जंगल में चला गया। उक्त सिंह-शिशु के समान जो आत्मा अनादिकाल से मोह और अज्ञान के अन्धकारवश अपने अर्हत्स्वरूप या सिद्धस्वरूप को भूली हुई है, वह इन परमात्मद्वय की भक्ति से अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप का भान कर लेती है। ज्यों ही परमात्मा के स्वरूप को भक्ति द्वारा व्यक्ति जान लेता है, त्यों ही उसे अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप का भान हो जाता है और तब वह अपनी आत्मा को प्रतिक्षण अहंत एवं सिद्ध परमात्मा के गुणों और उनकी स्तुति-भक्ति द्वारा जाग्रत एवं स्व-रूप साधना में अनवरत प्रयत्नशील रख पाता है। १. 'देवचन्द्र-चौबीसी अजित जिनस्तवन' से भाव ग्रहण २. 'पानी में मीन पियासी' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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