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________________ २२२ कर्मविज्ञान : भाग ८ भक्ति से परमात्म-विमुख परमात्म-सम्मुख हो सकता है : कैसे-कैसे ? परमात्मा से अब तक विमुख रहने से जो दुःख उठाने पड़े, जो कर्मों की भारी परम्परा बढ़ाई जा रही थी, भक्ति से परमात्मा के सम्मुख हो जाने से उन दुःखों से छुटकारा मिल सकेगा, कदाचित् पूर्वबद्ध कर्मवश दुःख आ भी पड़ें तो भी वह दुःखों को परमात्म-भक्तिमय मनःस्थिति से सुखमय वना सकेगा। साथ ही कर्मों की परम्परा आगे बढ़ने से रुक जाएगी । पूर्वकृत कर्मों का फल भी परमात्म-भक्तिरस में मग्न होने से साधक समभाव से भोग सकेगा। इस प्रकार परमात्म-भक्ति के द्वारा जब आत्मा अपनी गति का मोड़ बदलेगी, संसारमार्ग से हटकर सर्वकर्ममुक्ति के मार्ग की ओर उन्मुख होगी तो उसे परम आनन्द के दर्शन होंगे। वर्तमान युग का मानव अपने स्व-रूप को भूलकर विषय कषायों तथा राग-द्वेष-मोह आदि विभावों के बीहड़ में भटक रहा है, इससे उसे कहीं भी शान्ति नहीं, सन्तोष नहीं, आनन्द नहीं, उसकी आत्मिक शक्तियों पर कर्मों की शक्तियाँ हावी हो रही हैं। पर-भावों और विभावों में अत्यासक्त मानव को स्वभाव में, स्व-स्वरूप में स्थिर करने तथा उसकी प्रज्ञा की स्व-रूप में अवस्थिति के लिए यदि कोई माध्यम है या उपाय है तो परमात्म-भक्ति ही है। परमात्म-भक्ति ही एकमात्र शुद्ध उपाय है, जो आत्मार्थी साधक को उनकी भक्ति, श्रद्धा, नाम-स्मरण, गुणोत्कीर्तन आदि के निमित्त से अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचा सकती है। उसके माध्यम से परमात्म-स्वरूप (स्वात्मस्वरूप ) को विस्मृत हुआ साधक परमात्म-स्वरूप (शुद्ध) आत्म-स्वरूप) को प्राप्त कर सकता है, स्व-स्वरूप में अवस्थिति कर सकता है, सर्वकर्मों से मुक्त परमात्मपद को भी प्राप्त कर सकता हैं । अतः परमात्मा से विमुख आत्मा को परमात्मा के सम्मुख करने वाली अचिन्त्य शक्ति भक्ति में है। अपने स्वरूप को भूला हुआ मानव प्रभु-भक्ति से शुद्ध आत्म-स्वरूप का भान कर लेता है अध्यात्मशास्त्र का एक सिद्धान्त है कि मनुष्य श्रद्धामय होता है, जो जिस पर जैसी श्रद्धा रखता है, वह वैसा ही बन जाता है। मनोविज्ञान का भी यह नियम है कि मनुष्य जिस वस्तु का जैसा चिन्तन, विचार, स्मरण, रटन करता है, जैसी श्रद्धा, भावना या दृढ़ इच्छा करता है, कालान्तर में वैसा ही बन जाता है, वैसी ही मनोवृत्ति तथा आत्म-शक्ति प्राप्त कर लेता है।' महाराणा प्रताप का नाम-स्मरण करते ही बहुत-से लोगों के हृदय में वीरता के भावों का संचार हो जाता है, भुजाएँ फड़क उठती हैं। वहाँ महाराणा प्रताप आकर वीरता के भाव भर जाते हैं या भुजाएँ फड़काते हैं, ऐसा कुछ नहीं है । किन्तु महाराणा प्रताप का ज्वलन्त आदर्श १. श्रद्धामयोऽयं पुरुषः, योन्यच्छ्रद्धः स एव सः । - भगवद्गीता, अ. १७, श्लो. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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