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________________ ॐ २२४ 3 कर्मविज्ञान : भाग ८ परमात्म-भक्ति से वायरलैस सैट के समान परमात्मा से सम्पर्क संभव __ प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक डॉ. हेनरी लिंडलहर' अपनी पुस्तक 'प्रेक्टिस ऑफ नेचुरल थेरोप्यूटिक्स' में लिखते हैं-हम जिस प्रकार का, जिस आत्मा का ध्यान सतत करते हैं, उससे हमारा गाढ़ सम्पर्क उसी प्रकार स्थापित हो जाता है, जिस प्रकार वायरलैस के द्वारा संसार के विभिन्न रेडियो-स्टेशनों से सम्पर्क हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य का मस्तिष्क वायरलैस सैट के समान है, जो हर समय श्रद्धा-भक्तिवश वीतराग भगवान के उत्तमोत्तम गुणों का स्मरण करके अपने जीवन में सुषुप्त शुद्ध आत्म-गुणों को जाग्रत और अनवरत गुण-ग्मरण कर सकता है तथा . अपनी आत्मा को परमात्मा से, मोक्ष से या परमात्मपद से जोड़ सकता है, परोक्षरूप से परमात्मा से भक्तिभावों द्वारा मिलन कर सकता है। विनाशी को छोड़कर अविनाशी के साथ प्रीति-भक्ति में भय, दुःख, क्लेश दूर हो जाता है आज अधिकांश व्यक्ति सांसारिक पर-पदार्थों के प्रति तथा आसक्ति, मोह, राग-द्वेष, अहंकार आदि विभावों के प्रति प्रीति-सम्बन्ध जोड़ते हैं, जिससे उन्हें दुःख, पश्चात्ताप, क्लेश, असन्तोष, वैर-विरोध, कर्मबन्ध आदि का पुनः-पुनः वेदन होता रहता है, परन्तु परमात्मा के साथ एक बार भी प्रीतिपूर्वक भक्ति-निरुपाधिक भक्ति दृढ़ हो जाए तो वह पर-भावों और विभावों के प्रति प्रीति से होने वाले दुःख, क्लेश आदि को तथा अशुभ कर्मबन्धों को रोकने में सक्षम हो जाता है। क्योंकि उसने अब विनश्वर पर-पदार्थों से या व्यक्तियों से प्रीति के बदले अविनश्वर (अविनाशी) परमात्मा या शुद्ध आत्मा के साथ प्रीति = भक्ति के रूप में निरुपाधिक सम्बन्ध जोड़ लिया है। इस कारण उसे किसी खतरे या अनिष्ट की आशंका नहीं होती। 'नारदभक्तिसूत्र' में कहा गया है-“भक्ति उसकें (अव्यक्त प्रभु के) प्रति परम प्रेमरूपा है। परम प्रेमरूपा का अर्थ है-कामना-वासना-अहंकार-ममकार से रहित, नामरूप से आकार से रहित विदेह परमात्मा के प्रति भक्ति ही परम प्रेमरूपा है। आगे कहा है-“वह भक्ति अमृतम्वरूपा है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है और तृप्त हो जाता है।" अर्थात् जिसने परम प्रेम जाना, उसके अहंकार की मृत्यु हो गई, मैं भाव छूट गया, तब जो मिलता है, वह अमृतरूप ही होता है। परमात्मा से जुदा अपने को मैं कहने का भाव मिट गया है, इसलिए वह तृप्त हो जाता है। अर्थात् जिस भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न किसी से द्वेष करता है, न आसक्त होता है और न ही विषय-भोगों में उसका उत्साह होता है। आगे कहा है-उस भक्ति के प्राप्त होने पर १. 'अखण्डज्योति, जून १९८०' से भाव ग्रहण, पृ. ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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