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________________ ॐ १९२ * कर्मविज्ञान : भाग ८ * है। परन्तु शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से ये तीनों चैतन्यस्वरूप ही हैं, क्योंकि उस एक अखण्ड वस्तु में भेदों के लिए अवकाश ही कहाँ है?" मोक्षमार्ग के दो रूप : स्वरूप, समन्वय, साध्य-साधनरूप और एकान्तवाद से हानि ___ आशय यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र; तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग हैं। मोक्ष प्राप्त होता है-आत्मा को और आत्मा से ये तीनों भिन्न नहीं हैं, तीनों ही आत्म-रूप हैं। इसलिए निश्चय से तो साध्य भी आत्मा है और साधन भी आत्मा है। परन्तु साध्य है-शुद्ध आत्मा (कर्ममलयुक्त) ही और तदनुरूप साधन भी . शुद्ध रत्नत्रयात्मक आत्मा है। जब तक साध्य और साधन में ऐक्य स्थापित नहीं होता, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। परन्तु ऐसा होना एकदम तो सम्भव नहीं है। अतः प्रारम्भ में साध्य-साधन के भेद द्वारा ही अभ्यास करना होता है। इसलिए 'तत्त्वार्थसार' में कहा गया-निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। उनमें से पहला निश्चय मोक्षमार्ग साध्यरूप है और व्यवहार मोक्षमार्ग साधनरूप है। अपनी शुद्ध आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और आत्म (स्व-रूप) में स्थिति को क्रमशः निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र कहा है। इसी प्रकार आत्मा के श्रद्धान आदि में सहायक सुदेव (आप्त), सुगुरु (अथवा सत्शास्त्ररूप आगम) तथा पर-पदार्थों (निश्चय स्वरूप के साधक सात या नौ तत्त्वों = पदार्थों) का श्रद्धान, ज्ञान और उनके प्रति उपेक्षा रूप सुचारित्र को व्यवहार रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग कहा है। संक्षेप में, आत्माश्रित कथन को निश्चय सम्यग्दर्शनादि और .पराश्रित कथन को व्यवहार सम्यग्दर्शनादि कहते हैं। इसी प्रकार पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप है और द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा सदैव एक अद्वितीय ज्ञानवान् आत्मा ही मोक्षमार्ग है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो निश्चय मोक्षमार्ग अभेद रत्नत्रय स्वरूप है, जबकि व्यवहार मोक्षमार्ग भेद रत्नत्रयस्वरूप है। पहला साध्य है, दूसरा साधन है। वास्तव में साधन और साध्य दो नहीं हैं, बल्कि एक ही आत्मा १. दर्शनं निश्चयः पुंसि, बोधस्तद्बोध इस्यते। स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः॥१४॥ एकमेव हि चैतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽयवा। कोऽवकाशो विकल्पानां, तबाखण्डैकवस्तुनि ॥१८॥ -प. पंचविशंतिका २/१४-१५ २. (क) 'जैनसिद्धान्त' (सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री) से भाव ग्रहण, पृ. १७८ (ख) निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूपः स्यात्, द्वितीयस्तस्य साधनम्॥ -तत्त्वार्थसार ९/२ (ग) निश्चमोक्षमार्गस्य परम्परया कारणभूतं व्यवहारमोक्षमार्गम्। -पंचास्तिकाय ता. वृ. १०५/१६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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