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________________ ॐ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? @ १९१ । आत्मा को सर्वथा विस्मृत करके केवल दूसरों को मानने, जानने और सुधारने का प्रयत्न मोक्षमार्ग नहीं कल्पना कीजिए कोई मुमुक्ष अपने (आत्मा) पर तो विश्वास नहीं करता, दूसरे पर विश्वास करता है, वह अपने (आत्मा) को तो नहीं जानता-समझता, किन्तु पर-पदार्थों को या दूसरों को जानने-समझने के लिए अहर्निश उपदेश देता फिरता है, माथापच्ची करता रहता है तथा वह अपने (आत्मा) को स्वरूप में अवस्थित करने का, उसे सुधारने का, स्वरूप-रमण का पुरुषार्थ नहीं करता, किन्तु दूसरों को सुधारने, चारित्र-पालन का, क्रियाकाण्ड का, व्यवहारचारित्र की साधना का उपदेश देता रहता है। भला, इस प्रकार का प्रयत्न मोक्ष का मार्ग कैसे हो सकता है ?? निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : स्वरूप, उद्देश्य और भेदविज्ञानरूप यद्यपि व्यवहारदृष्टि से मोक्षमार्ग का विश्लेषण करते समय हमने बताया था कि 'उत्तराध्ययन' के अनुसार सम्यग्दर्शन में तत्त्वभूत पदार्थों में विश्वास (श्रद्धा) का बल है, सम्यग्ज्ञान में तत्त्वभूत पदार्थों को जानने-समझने की, देखने की शक्ति है और सम्यक्चारित्र में उन पदार्थों में से हेय को छोड़कर उपादेय पर चलने की, विषय-कषायों का निग्रह करने की एवं सम्यक आचरण करने की शक्ति है तथा सम्यक्तप में आत्मा को परिशुद्ध करने की शक्ति है। परन्तु ये चारों मिलकर समन्वित रूप से ही मोक्ष के अंग या साधन होते हैं, मोक्षमार्ग बनते हैं पृथक्-पृथक् नहीं। , मोक्ष किसके लिए है? यह प्रश्न उठने पर उत्तर मिलेगा कि मोक्ष आत्मा के लिए, जीव के लिए है। उसी (आत्मा या जीव) को पर-पदार्थों या पर-भावों और विभावों से पृथक् जानना और उसका वास्तविक रूप समझना है, उसी पर विश्वास करना है और उसी आत्मा के शुद्ध स्वरूप में रमण करना है, पर-भावों में नहीं। अतः व्यवहारदृष्टि से जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करने, उनका (आगमों द्वारा) ज्ञान करने और रागादि का परिहार करने को क्रमशः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग कहा है। किन्त जो अपने आत्म-तत्त्व पर विश्वास करता है, उसके स्वरूप का भी ज्ञान नहीं करता और न ही उसके स्वरूप में अवस्थान करता है; वह मुमुक्षु साधक कैसे मोक्षरूप साध्य को प्राप्त कर सकेगा? क्योंकि निश्चयदृष्टि से आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में रत्नत्रय नहीं रहता। इस कारण वह रत्नत्रय आत्मा ही निश्चयदृष्टि से मोक्ष का कारण (मार्ग) है। ‘परमानन्द पंचविंशति' के अनुसार-'आत्म-स्वरूप के निश्चय (रुचि या प्रतीति) को सम्यग्दर्शन, उसके ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और उसी आत्मा में स्थिर होने को सम्यकचारित्र कहा जाता है। इन तीनों का संयोग मोक्ष का कारण होता १. 'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण. पृ. ११० २. नाणेण जाणइ भावे. दंसणेण च सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइ. तवेण परिसुज्झइ॥ -उत्तराध्ययन, अ. २८, गा.३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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