SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ @ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे? @ १९३ . साधन और साध्य में भेद से दो रूप हो रहा है। आत्मा से रत्नत्रय में भेद करके प्रारम्भ में उनकी (व्यवहार रत्नत्रय की) उपासना-साधना की जाती है। इस प्रकार साधन-साध्यरूप से परस्पर सापेक्ष निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग से ही मुक्ति की सिद्धि होती है। अर्थात् साध्य और साधन में ऐक्य स्थापित नहीं होता, तब तक मोक्ष-प्राप्ति सम्भव नहीं है। व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग के अविरोधपूर्वक ही इप्ट-सिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं। यदि मुमुक्षु साधक शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप निश्चय म.क्षमार्ग को मानते हैं, परन्तु अभी निश्चय मोक्षमार्ग के अनुष्ठान की शक्ति न होने से निश्चय के साधक व्यवहार मोक्षमार्गानुकूल शुभ अनुष्ठान करते हैं तो पगग सम्यग्दृष्टि होकर परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यदि वे शुद्धात्मा के अनुष्ठानरूप निश्चय मोक्षमार्ग को और उसके साधक व्यवहार मोक्षमार्ग को मानते हैं, किन्तु चारित्रमोह के उदय के कारण शक्ति का अभाव होने से शुभ-अशुभअनुष्ठान से रहित होने पर भी यद्यपि शुद्धात्माभावना सापेक्ष शुभानुष्ठान में संलग्न विरत या विरताविरत व्यक्तियों के समान तो नहीं होते, फिर भी अविरत सराग-सम्यक्त्व से युक्त होने से (व्यवहार) सम्यग्दृष्टि होते हैं तथा परम्परा से मोक्ष भी प्राप्त करते हैं। परन्तु जो विशुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वभाव शुद्ध आत्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप निश्चय मोक्षमार्ग से निरपेक्ष केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहार मोक्षमार्ग को मानते हैं, यानी केवल व्यवहार का ही अवलम्बन लेते हैं, वे निरन्तर साध्य और साधन को भिन्न ही देखते हैं। उनका चित्त बाह्य धर्मादि के श्रद्धान में, द्रव्यरूप श्रुतज्ञान में, समस्त बाह्य साध्वाचाररूप क्रियाकाण्ड में ही लगा रहता है। उनकी प्रवृत्ति कर्मचेतना-प्रधान होने से अशुभ कर्म से हटकर शुभ कर्म मूलक हो जाती है। (निश्चय) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एक ही (शुद्ध) परिणति रूप जो ज्ञानचेतना है, उनमें किंचित् भी उत्पन्न नहीं होती। उनकी चित्तवृत्ति पुण्यबन्ध के भार से दब जाती है। फलतः देवलोक में उत्पन्न होकर जन्म-मरणादि रूप संसार में भ्रमण करते हैं। इसके विपरीत जो केवल निश्चयनयावलम्बी होकर शुद्धात्म-स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग को मानते हैं। परन्तु निश्चय मोक्षमार्ग के • अमुष्ठान की शक्ति न होने से रागादि विकल्परहित शुद्ध आत्मा को प्राप्त न करके समस्त क्रियाकाण्डों से तो विरक्त हो जाते हैं, व्यवहार मोक्षमार्ग के अनुष्ठान को बुरा (हेय) बतलाते हैं, भिन्न साध्य-साधन भाव का तो तिरस्कार करते हैं और अभिन्न साध्य-साधन भाव को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। फलतः वे पुण्यबन्ध होने के भय से मन्द-कषायरूप शुभ भाव से भी दूर रहते हैं। . वे पुण्यवन्ध के भय से मनीन्द्र सम्बन्धी कर्मचेतना का भी अवलम्बन नहीं लेते और नैष्कर्म्यरूप ज्ञानचेतना में रहते नहीं हैं। अतः कर्मफलचेतना-प्रधान प्रवृत्ति होने से वे प्रायः वनस्पतिकाय की तरह, पापबन्ध के कारणभूत अशुभ भावों का सेवन करके वे एकान्त निश्चयावलम्बी पापबन्ध ही करते हैं। अतः न तो एकान्तरूप से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy