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________________ १९० कर्मविज्ञान : भाग ८ ४ होता हुआ (अर्थात् निजात्मा में एकाग्र होता हुआ ) अन्य कुछ भी नहीं करता, न ही छोड़ता है (अर्थात् करने, छोड़ने के विकल्पों से अतीत हो जाता है); वह आत्माही निश्चयनय से मोक्षमार्ग कहा गया है।" 'परमात्म-प्रकाश' के अनुसार - " जो आत्मा अपने से, अपने आप को देखता है, जानता है व आचरण करता है, वही दर्शन-ज्ञान-चारित्र - परिणत विवेकी जीव मोक्ष का कारण है।” 'नयचक्र वृत्ति' में भी कहा है- "निश्चय से मोक्ष का हेतु स्व-भाव ही है।’” ‘द्रव्यसंग्रह ' में कहा गया है - " आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता। अतः रत्नत्रयरूप आत्मा ही मोक्ष का कारण है।" इसी कारण ‘समयसार’ में कहा गया है - " साधु नित्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना करे, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से उन तीनों को ही आत्मा जाने ।” “निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान, संवर और योग है।" 'पंचास्तिकाय' में कहा गया है-“अतः यह बात सिद्ध होती है कि विशुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण वाले जीव-स्वभाव में निश्चल अवस्थान करना ही (निश्चय से) मोक्षमार्ग है ।" इसलिए : निश्चय से आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और आत्मा में अवस्थिति को निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र कहा है । फलितार्थ यह है कि आत्म-श्रद्धा, आत्म-ज्ञान और स्व-स्वरूप में रमणता ही निश्चयदृष्टि से मोक्ष का मार्ग है।' १. (क) निश्चय - व्यवहाराभ्यां, मोक्षमार्गे द्विधा स्थितः । (ख) जीवादि सद्दहणं सम्मत्तं णाणमंग-पुव्वगदं । चेट्ठा तवं हि चरिया, ववहारो मोक्खमग्गो त्ति ॥ (ग) 'अध्यात्म प्रवचन' (उपाध्याय अमर मुनि ) से भाव ग्रहण, पृ. १०९ (घ) णिच्छय-णएण भणियो, तिहिं समाहिदो हु जो अप्पा | कुदि किंचि वि, णमुद सो मोक्खमग्गो ति ॥ (ङ) पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पिं अप्पउ जो जि । दंसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहं कारण सो जि ॥ (च) रयणत्तयं न वट्टइ अप्पाणं भूयित्तु अण्णदवियम्हि । तम्हा तत्तिय-मइओ होदि मोक्खस्स कारणं आदा ॥ (छ) दंसण - णाण-चरिताणि, सेवि दव्वाणि साहुणा णिच्च । ताणि पुण जाणतिणिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥ १६ ॥ आदा खु मज्झणाणं. आदा मे दंसणं चरितं च । आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ॥ २७७ ॥ Jain Education International - तत्त्वार्थसार ९/२ For Personal & Private Use Only - पंचास्तिकाय १६० - पंचास्तिकाय १६१ - प. प्र. २/१३ -समयसार १६, २७७ (ज) ततः स्थितं विशुद्धज्ञान-दर्शनलक्षणे जीवस्वभावे निश्चलावस्थानं मोक्षमार्ग इति। - पंचास्तिकाय - द्रव्यसंग्रह ४० www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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