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________________ * मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप १६५ मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्ष के अंग का साधन नहीं हैं निष्कर्ष यह है कि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को मोक्ष का अंग न मानकर जैनदर्शन ने संसार का अंग माना है। जैसे कि 'वेदान्तदर्शन' ने कहा - " ऋते ज्ञानान्न मुक्ति: ! " - ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। इसी प्रकार 'न्यायदर्शन' में प्रमाण, प्रमेय आदि १६ तत्त्वों के ज्ञानमात्र को मोक्ष - प्राप्ति का कारण बताया गया है। यहाँ ज्ञान केवल आत्म-लक्षी न होकर प्रायः पर-लक्षी ही है, इसलिये वेदान्तियों के ज्ञानमात्र को तथा नैयायिकों के षोड़श तत्त्वों के ज्ञान का सम्यग्ज्ञान नहीं कहा जा सकता । सम्यग्ज्ञान न होने से उसे मोक्ष का अंग नहीं माना जा सकता। तात्पर्य यह है कि मोक्ष की साधना में कोरे ज्ञान और दर्शन का होना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु उनका आत्म-लक्षी होना अनिवार्य है। इसी प्रकार मोक्ष की साधना में चारित्र का होना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु उसका आत्म-लक्षी होना जरूरी है। मिथ्यात्वदशा में ज्ञान, दर्शन और चारित्र निज गुण होने पर भी आत्म-लक्षी न होकर पर-लक्षी बने रहते हैं। इन गुणों का आत्म-लक्षी होना ही सम्यक्त्व है और पर-लक्षी होना मिथ्यात्व है । ' सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान : पहले कौन, पीछे कौन ? एक प्रश्न दार्शनिकों ने और उठाया है कि मोक्ष की साधना में सम्यग्दर्शन को पहले माना जाए अथवा सम्यग्ज्ञान को । मोक्ष की साधना का क्रम सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र रहे या सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन- सम्यक्चारित्र ? ज्ञान और दर्शन के पूर्वापर के सम्बन्ध में यह विचारभेद पाया जाता है। अगर तात्त्विक दृष्टि से देखा जाए तो किसी प्रकार के विचारभेद या परस्पर विरोध को अवकाश नहीं है। ‘उत्तराध्ययन' आदि आगमों में 'नादंसणिस्स नाणं' कहकर ज्ञान से पूर्व दर्शन को रखा गया है। उसका कारण यह बताया गया है कि ज्ञान तो आत्मा में अनादिकाल से था ही, किन्तु उस ज्ञान को सम्यक् बनाने की शक्ति सम्यग्दर्शन में है। अतः ज्ञान से पूर्व उस सम्यग्दर्शन को रखा जाना या प्राप्त करना आवश्यक है, ताकि उसके कारण अज्ञान या कुज्ञान ( मिथ्याज्ञान) रूप ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाए। सम्यग्दर्शन नया ज्ञान उत्पन्न नहीं करता, किन्तु जो ज्ञान आत्मा में अज्ञान या मिथ्याज्ञान के रूप में पड़ा है, उसे वह सम्यग्ज्ञान बना देता है । इस दृष्टि से ज्ञान से पूर्व सम्यग्दर्शन को रखने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है किन्तु उन्हीं आगमों में कहीं-कहीं दर्शन से पूर्व ज्ञान को रखा गया है- “नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा।” उनका तर्क यह है कि दर्शन का अर्थ है - सत्य की प्रतिपत्ति, सत्य की दृष्टि । परन्तु कौन-सी दृष्टि, श्रद्धा, प्रतिपत्ति या आस्था सत्य है, कौन-सी १. (क) छान्दोग्य उपनिषद् (ख) प्रमाण- प्रमेय Jain Education International तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः । For Personal & Private Use Only - न्यायसूत्र www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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