SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ १६४ * कर्मविज्ञान : भाग ८ है दर्शन से पूर्व सम्यक् शब्द जोड़ने का कारण चेतना के अत्यन्त क्षीण एवं निकृष्ट अवस्था में भी ज्ञान की तरह दर्शनगुण भी संसार के प्रत्येक प्राणी में रहता है। अत्यन्त क्षीण अविकसित दशा में भी जीव में दर्शनगुण रहता है, परन्तु विश्वास, रुचि, श्रद्धा, रूप में उसका दर्शन आत्माभिमुखी न रहकर, पराभिमुख (पर-पदार्थाभिमुखी) रहा, आत्मा में न रहकर शरीरादि में रहा है। उसकी श्रद्धा, विश्वास, रुचि, दृष्टि या प्रतीति मिथ्या होने से आत्मा में न रहकर शरीरादि पर-भावों में रहती है। अतः दर्शन से पूर्व सम्यक् शब्द को जोड़ा गया है, ताकि मिथ्यादर्शन मोक्ष का अंग न वन जाए। .. इसी प्रकार चारित्र भी प्रत्येक आत्मा का गण है। चारित्र का अर्थ है-क्रिया. प्रवृत्ति या आचार। आचार, क्रिया या प्रवृत्ति के रूप में चारित्र तो प्रत्येक जीव में किसी न किसी रूप में रहता ही है। ऐसा कभी नहीं होता कि चारित्र आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहीं रहता हो। हिंसा-अहिंसा, सत्य-असत्य दोनों ही चारित्र हैं। एक सम्यक् है, दूसरा असम्यक् । क्रिया या प्रवृत्ति का आत्माभिमुखी होना सम्यक्चारित्र है और उसका शरीरलक्षी या सांसारिक भोगलक्षी होना मिथ्याचारित्र है। क्रिया का सीधा होना सुचारित्र और विपरीत होना कुचारित्र है। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार-अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को (व्यवहार) चारित्र कहा जाता है। चारित्र या क्रिया अथवा आचार जब कभी होगा, आत्मा (जीव) में ही होगा; अजीव (जड़) में नहीं। इसी आधार पर चारित्र को आत्मा का गुण कहा गया है। निश्चयदृष्टि से स्वरूप में या आत्म-स्वभाव में रमण सम्यक्चारित्र है और मिथ्याचारित्र या कुचारित्र है-पर-भावों में रमण। सम्यक्चारित्री आत्मा की प्रवृत्ति मोक्षाभिमुखी होती है, जबकि मिथ्याचारित्री आत्मा की प्रवृत्ति संसाराभिमुखी रहती है। इसीलिए चारित्र से पूर्व सम्यक् शब्द जोड़ा गया है, ताकि उसके धारक की प्रवृत्ति संसाराभिमुखी न हो। ___ आशय यह है कि कोरे (सामान्य) दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष के अंग नहीं हैं, अपितु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्ष के अंग हैं। शब्दशास्त्र के अनुसार सम्यक् शब्द का अर्थ होता है-प्रशस्त, विशुद्ध, यथार्थ या संगत। इन तीनों गुणों के पूर्व सम्यक् शब्द इस अभिप्राय को सूचित करता है कि जब तक ये तीनों गुण प्रशस्त, विशुद्ध एवं संगत नहीं होंगे, तब तक ये मोक्ष के अंग नहीं बन सकेंगे। १. (क) 'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण, पृ. ८१ (ख) सम्यमिथ्याविशेषाभ्यां विना श्रद्धादिमात्रकाः। सपक्षवद्विपक्षेऽपि वृत्तित्वाद व्यभिचारिणः॥ --पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध ४१७ भावानां याथात्म्य-प्रतिपत्तिविषय-श्रद्धान-संग्रहार्थं दर्शनस्य सम्यक् विशेषणम्। । -सर्वार्थसिद्धि १/१/५/३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy