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________________ ॐ १६६ 6 कर्मविज्ञान : भाग ८ • असत्य? इसका निर्णय तो सम्यग्ज्ञान में ही हो सकता है। ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है। किसी भी वस्तु के सत्यासत्य का निर्णय करने में आत्मा के. विशुद्ध ज्ञान (सुज्ञान) को ही प्रार्थामकता देनी चाहिए। अतः आग्था. श्रद्धा, विश्वास या दृष्टि से पहले सम्यग्ज्ञान होना चाहिए। वस्तुति का गहगई से विचार किया जाए तो यह विवाद ही व्यर्थ है, जैसे सूर्य के उदय के साथ ही आतप और प्रकाश दोनों साथ-साथ भूमण्डल पर आते हैं, वैसे ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन दोनों साथ-साथ रहते हैं। इनमें क्रमभाव या पूर्वापरता है ही नहीं। ज्यों ही सम्यग्दर्शन होता है, त्यों ही तत्काल सम्यग्ज्ञान हो जाता है। इन दोनों के प्रगट होने में क्षणमात्र का अन्तर भी नहीं रह पाता।' ___ मोक्ष-साधना की महायात्रा में सम्यग्दृष्टि, सम्यग्दर्शन, सदृष्टि, सुदर्शन या सम्यक्श्रद्धा का विशेष महत्त्व इस आधार पर माना गया है कि दृष्टि या दर्शन सम्यक् होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान वनता है और चारित्र या तप सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप बनता है। सम्यग्दर्शन मिथ्याज्ञान को सम्यक् बना देता है। विशुद्ध (सम्यक) दृष्टि के अभाव में कितने ही शास्त्रों का अथवा चाहे भगवती, प्रज्ञापना आदि आगमों का गहन ज्ञान कर ले, उसका वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं होगा, क्योंकि वह आत्म-लक्षी सम्यग्दृष्टियुक्त ज्ञान नहीं है। सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न आत्म-लक्षी आत्मा के समक्ष भौतिकशास्त्र भी सम्यक्शास्त्र बन जाते हैं। उसके लिए उक्त मिथ्याज्ञान-प्रेरक शास्त्र भी सम्यग्ज्ञान-प्रेरक बन जाता है। 'नन्दीसूत्र' इस तथ्य का साक्षी है। विशुद्ध दृष्टि के अभाव में चाहे जितने कठोर क्रियाकाण्ड कर ले, चाहे जितने शास्त्रों को कण्ठस्थ कर ले, चाहे जितने साधु के वेश और उपकरण धारण कर ले, चाहे जितने लम्बे-लम्बे कठोर तप, घोर तप या आतापना आदि काय-क्लेश तप कर ले, सभी संसारवृद्धिकारक बनते हैं, मोक्ष-प्राप्तिदायक नहीं। क्योंकि आत्म-लक्षी सम्यग्दृष्टि के अभाव में वे सब क्रियाकाण्ड तप, जप, वेश, आचार या शास्त्र-स्वाध्याय या तो प्रदर्शन या आडम्बर करके प्रसिद्धि, प्रशंसा या प्रतिष्ठा पाने या इहलौकिक या पारिलौकिक किसी कामना, वासना आदि के लिये किये जाते हैं या दूसरों को या दूसरे सम्प्रदाय पंथ आदि को नीचा दिखाने और स्वयं को उच्चचारित्री, क्रियापात्र और आत्मार्थी कहलाने के लिये किये जाते हैं या फिर दूसरों की निन्दा और उन पर आक्षेप करने के लिए किये जाते हैं। जिसकी आत्म-लक्षी सम्यग्दृष्टि होती है, वह इन पर-भावों-विभावों से निरपेक्ष होकर एकमात्र आत्म-लक्षी दृष्टि से ग्वाध्याय, ध्यान, जप, तप, धर्माचरण आदि करता १. (क) नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥ • -उत्तरा. २८/२ (ख) नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुँति चरणगुणा। -वही, २८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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