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________________ ॐ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप ® १६३ * ज्ञानादि गुण और गुणी आत्मा का अविनाभावी सम्बन्ध है न्यायशास्त्र की दृष्टि से गुण और गुणी में अविनाभावी सम्बन्ध होता है। जैसे अग्नि गुणी है, उसका गुण है-उष्णता। उष्णता अग्नि को छोड़कर रह नहीं सकती, वैसे ही अग्नि भी उष्णताहीन कदापि नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों में अविनाभावी सम्बन्ध है। इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुण गुणी आत्मा को छोड़कर रह नहीं सकते, क्योंकि गुण और गुणी दोनों का सम्बन्ध अविनाभावी होता है। जैनदर्शन अनेकान्त दृष्टि की अपेक्षा निश्चयनय से गुण और गुणी में कथंचित् अभेद तथा व्यवहारनय से कथंचित् भेद मानता है। ___ज्ञान से पूर्व सम्यक् शब्द जोड़ने का कारण अतएव ज्ञान आत्मा का निज गुण है। संसार का एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसमें ज्ञान न हो। यह बात दूसरी है कि किसी प्राणी में कम होता है, किसी में अधिक तथा किसी में ज्ञान मिथ्या होता है, किसी में सम्यक् । ज्ञानरूप उपयोग आत्मा का एक बोधरूप व्यापार है। संसारी आत्माओं (जीवों) में सबसे निकृष्ट स्थिति निगोद जीवों की मानी जाती है। निगोद जीवों की चेतना-शक्ति (ज्ञान-शक्ति) इतनी क्षीण, अविकसित और अल्प होती है कि वहाँ एक ही शरीर में अनन्त-अनन्त जीवों (आत्माओं) को निवास करना पड़ता है, प्रत्येक आत्मा (जीव) के पास अपने पृथक्-पृथक् शरीर भी नहीं रहते। अनन्त आत्माओं की साझेदारी का यह तन भी बहुत सूक्ष्म व चर्मचक्षु से अदृष्टिगोचर होता है। अतीन्द्रिय विशिष्ट ज्ञानी ही उसे जान-देख सकते हैं। चेतना (ज्ञान) की इस क्षीण-हीन अवस्था में भी उन निगोदिया जीवों के पास ज्ञानगुण रहा है, रहेगा भी। किन्तु उनकी ज्ञानरूप उपयोग की धारा आत्माभिमुखी न होकर शरीराभिमुखी रहती है; जिन जीवों के ज्ञानरूप उपयोग की धारा शरीर से सम्बद्ध भौतिक भोग-साधनों में प्रवाहित होती है, उनका वह ज्ञान सम्यक् न होकर मिथ्याज्ञान ही रहता है। मिथ्याज्ञान वाले प्राणी में ज्ञान की धारा तो रहती है, परन्तु वह सम्यक् न होकर मिथ्या होती है। अतः वह मोक्ष का या मोक्षमार्ग का अंग या साधन नहीं हो सकता और ज्ञान भी सम्यक तब होता है, जब उससे पहले दर्शन सम्यक हो। दर्शन, दृष्टि या विश्वास (श्रद्धान) पहले परिष्कृत, शुद्ध, आत्म-लक्षी हो तो ज्ञान सम्यक् होता है और एकेन्द्रिय और तीन विकलेन्द्रिय जीवों का ज्ञान मिथ्या ही होता है, सम्यक् नहीं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव मनुष्य, देव, नारक आदि में अधिकांश जीव मिथ्यादर्शनयुक्त होने से उनका ज्ञान भी मिथ्या होता है। मिथ्याज्ञान मोक्ष प्राप्ति में बाधक है। इसलिए ज्ञान आत्मा का निज गुण तथा निज स्वरूप होते हुए भी जिन जीवों का ज्ञान मिथ्या होता है, वह मोक्षमार्ग की साधना में उपादेय नहीं है। अतः ज्ञान के पूर्व सम्यक् शब्द न जोड़ा जाए तो मिथ्याज्ञान भी मोक्ष का अंग माना जाएगा, जो अभीष्ट नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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