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________________ ४२४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ बन्ध नहीं होता। फलत: १६+५+५+२= २८ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य न होने से १४८ में से. इनको कम करने पर शेष १२० कर्मप्रकृतियाँ ही सामान्यतया बन्धयोग्य रह जाती हैं । T (१) प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में सामान्य से बन्धयोग्य पूर्वोक्त १२० कर्मप्रकृतियों में से ११७ कर्मप्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध कर सकते हैं। पूर्वोक्त १२० में से तीर्थंकर नामकर्म और आहारक - द्विक (आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग), इन तीन कर्मप्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती जीवों के नहीं: होता । अर्थात्-ये तीन कर्मप्रकृतियाँ मिथ्यात्वगुणस्थान में अबन्ध - योग्य हैं; क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्यक्त्व से होने से सम्यक्त्वी जीव ही करता है, और आहारकद्विक का बन्ध अप्रमत्तसंयम से होने से अप्रमत्तसंयत ही कर सकता है; मगर प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जीवों को न तो सम्यक्त्व होना सम्भव है और न ही अप्रमत्तसंयम; क्योंकि चतुर्थ अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से पहले सम्यक्त्व हो नहीं सकता और सातवें अप्रमत्त- संयत गुणस्थान से पहले अप्रमत्त - संयम भी संभव नहीं है। निष्कर्ष यह है कि प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पांचों बन्धहेतुओं के विद्यमान रहने से पूर्वोक्त तीन प्रकृतियों के सिवाय शेष ११७ कर्मप्रकृतियों का ही यथासम्भव बन्ध कर सकते हैं। अतः कर्मग्रन्थ की भाषा में, मिथ्यात्वगुणस्थान में ११७ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य और ३ प्रकृतियाँ अबन्धयोग्य हैं। (२) दूसरे सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से १६ प्रकृतियाँ बन्ध-विच्छेदयोग्य होने से १०१ कर्मप्रकृतियाँ (क) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य देवेन्द्रमुनि), पृ. १४८ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ गा. ३ - अभिनव - कम्मग्गहणं बंधो ओहेण वीससयं । विवेचन, पृ. ४९ से २. अबन्ध - उस गुणस्थान में वह कर्म न बंधे, किन्तु आगे के गुणस्थान में उस कर्म का बन्ध हो, उसे अबन्ध कहते हैं । ३. सम्मेव तित्थबंधो, आहारदुगं पमाद- रहिदेसु । - गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ९२ ४. (क) तित्थयराहारक दुग वज्जं मिच्छंमि सत्तरसयं । - कर्मग्रन्थ भा. २, गा. ३, विवेचन ( मरुधरकेसरीजी), पृ. ५३ (ख) देहे अविणाभावी बंधण - संघाद इद अबंधुदया। वण्णचउक्के अभिण्णे गहिदे चत्तारि बंधुदये ॥ ३४ ॥ | गोम्मटसार कर्मकाण्ड (ग) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १४९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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