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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता - उदय - उदीरणा प्ररूपणा ४२५ बन्धयोग्य मानी जाती हैं । बन्धविच्छेद' होने वाली १६ प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु), जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय जाति से चतुरिन्द्रिय जाति तक), स्थावर - चतुष्क (स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम), हुण्डकसंस्थान, आतपनाम, सेवार्त - संहनन, नपुंसकवेद और मिथ्यात्वमोहनीय। इन १६ प्रकृतियों का मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्त में बन्ध-विच्छेद हो जाने से सासादन गुणस्थान में १०१ कर्मप्रकृतियाँ बन्धयोग्य रहती हैं। कर्मविज्ञान का यह नियम है कि गुणस्थानों में कर्मबन्ध के मिथ्यात्व आदि जोजो हेतु बताये गए हैं, उनमें से जिस-जिस गुणस्थान तक जिस-जिस का उदय रहता है, तब उस-उस के निमित्त से बंधने वाली कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी उस-उस गुणस्थान तक होता रहता है। मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म का उदय प्रथम (मिथ्यात्व) गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है, दूसरे गुणस्थान में नहीं । अतएव मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के उदय से • अत्यन्त अशुभरूप और प्रायः नारक जीवों, एकेन्द्रिय जीवों तथा विकलेन्द्रिय जीवों के योग्य नरकत्रिक से लेकर मिथ्यात्व - मोहनीय पर्यन्त (चतुर्थ गाथा में ) उक्त सोलह प्रकृतियों का बन्ध पहले गुणस्थान के अन्तिम समय तक, जब तक मिथ्यात्व मोहनीय का उदय है, हो सकता है; दूसरे गुणस्थान के समय नहीं। इसलिए पहले गुणस्थान में जिन ११७ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध माना गया है, उनमें से नरकत्रिक आदि पूर्वोक्त १६ प्रकृतियों को छोड़कर शेष १०१ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध दूसरे गुणस्था में होता है। (३) तीसरे मिश्र ( सम्यग् - मिथ्यात्व ) गुणस्थान में ७४ प्रकृतियों का बन्ध होता है; वह इस प्रकार - दूसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य जो १०१ प्रकृतियाँ बताई गईं थीं, उसके अन्त समय में निम्नोक्त २५ कर्मप्रकृतियों का विच्छेद हो जाता है । अर्थात् आगे तीसरे, चौथे आदि गुणस्थानों में इन प्रकृतियों का बन्ध नहीं हो सकता है। वे विच्छेदयोग्य २५ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं - तिर्यचत्रिक ( तिर्यंचगति, १. बन्ध-विच्छेद- आगे के किसी भी गुणस्थान में बंध न होने को बन्ध-विच्छेद कहते हैं। छेद, अन्त, क्षय या भेद, ये सब एकार्थक शब्द हैं। २. (क) नरयतिग जाइ - थावर - चउ हुंडायवछिवट्ट - नपुमिच्छं । सोलंतो इगहियसउ, सासणि तिरिथीण - दुहगतिगं ॥४॥ - कर्मग्रन्थ भा. २, विवेचन ( मरुधरकेसरी) पृ. ५४ (ख) मिच्छत्त हुंड - संढाऽसंपत्तेयक्ख - थावरादावं । सुमतियं वियलिंदिय णिरयदुणिरयाउगं मिच्छे ॥ - गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ९५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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