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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४२३ गोम्मटसार के अनुसार भेद विवक्षा से १४६ भेद . गोम्मटसार जीवकाण्ड के अनुसार ये १२० कर्मप्रकृतियाँ अभेद विवक्षा से बन्धयोग्य हैं। किन्तु भेदविवक्षा (भेददृष्टि से कथन करने की इच्छा) से १४६ कर्मप्रकृतियाँ बन्धयोग्य होंगी; क्योंकि दर्शनमोह की सम्यक्त्व, सम्यग्-मिथ्यात्व और मिथ्यात्व-इन तीन भेदों में से मूल मिथ्यात्व प्रकृति ही बन्धयोग्य मानी जाती है। इसका कारण यह है कि मिथ्यात्व-प्रकृति को ही जीव अपने परिणामों द्वारा अशुद्ध, अर्धशुद्ध और विशुद्ध-इन तीन भागों में विभाजित करता है, जिससे मिथ्यात्व के ही तीन भेद हो जाते हैं। उनमें से विशुद्ध कर्मपुद्गलों को सम्यक्त्व-मोहनीय और अर्धशुद्ध कर्मपुद्गलों को सम्यग्-मिथ्यात्व-मोहनीय कहते हैं। इसलिए मोहनीय कर्म के सम्यक्त्व और सम्यग्-मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियों को बन्धयोग्य प्रकृतियों में ग्रहण न करने से भेदविवक्षा से १४६ कर्मप्रकृतियाँ बन्धयोग्य मानी जाती हैं। - एक सौ बीस प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य क्यों; शेष क्यों नहीं? अतः कुल १४८ कर्मप्रकृतियों में से अभेद विवक्षा से १२० प्रकृतियाँ सामान्यतया बन्ध-योग्य मानी गई हैं। शेष २८ प्रकृतियों का बन्ध न होने का कारण यह है कि नामकर्म की ९३ या १०३ कर्मप्रकृतियों में से केवल ६७ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य मानी गई हैं, इसका कारण यह है कि वर्णादिचतुष्क के उत्तरभेद जो बीस बताये गए हैं, उनमें से एक जीव एक समय में वर्णपंचक में से किसी एक वर्ण का, रस-पंचक में से किसी एक रस का, गन्धद्वय में से किसी एक गन्ध का, और स्पर्शअष्टक में से किसी एक स्पर्श का ही बन्ध करता है, अवशेषों का बन्ध नहीं करता। इसलिए वर्णचतुष्क की सोलह प्रकृतियां नहीं बंधती। तथा शरीर-नामकर्म में बन्धन और संघातन, ये दोनों अविनाभावी होने से पांच बन्धन और पांच संघात का अन्तर्भाव पांच शरीरों में कर लिया जाता है। अतः बन्ध और उदयावस्था में बन्धन और संघात नामकर्म शरीर-नामकर्म से पृथक् नहीं गिने जाते। अतः शरीर नामकर्म में इन ५+५=१० कर्म-प्रकृतियों का समावेश हो जाने से तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, इन चार भेदों में भी अभेद-विवक्षा से इनके बीस भेद समाविष्ट हो जाने से बन्ध और उदयावस्था में सिर्फ चार भेद लिये जाने पर नामकर्म के शेष रहे ६७ भेद ही बन्धयोग्य माने गए हैं। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों में से अनादि मिथ्यात्वी में केवल एक मिथ्यात्व की ही सत्ता रहती है, उसके शेष दो भेद तो सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् होते हैं। इस कारण मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय इन दोनों का भी १. कर्मग्रन्थं भा. २ टिप्पण (मरुधरकेसरीजी), पृ. ५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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