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________________ ४२२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कितनी सत्ता में रहती हैं, कितनी उदय में आती हैं, कितनी प्रकृतियों की उदीरणा होती है ? - (१) बन्धाधिकार कर्मबन्धयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियाँ : क्यों और कैसे? ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों की उत्तर-प्रकृतियाँ १४८ हैं; इन १४८ उत्तर प्रकृतियों के नाम एवं उनके स्वरूप का वर्णन हम प्रकृतिबन्ध से सम्बद्ध निबन्धों में कर आए हैं। उक्त १४८ उत्तरकर्मप्रकृतियों में से किसी खास गुणस्थान और किसी खास जीव की विवक्षा किये बिना बन्धयोग्य (बन्धव्य) कर्मप्रकृतियाँ १२० मानी गई हैं। इसलिए १२० कर्मप्रकृतियों के बन्ध को सामान्य बन्ध या ओघबन्ध कहते हैं। यद्यपि कोई एक जीव किसी भी अवस्था में एक समय में कर्मपुद्गलों को १२० रूप में परिणमित नहीं कर सकता है। अर्थात्-१२० कर्मप्रकृतियों को एक समय में नहीं बांध सकता है। परन्तु अनेक जीव एक समय में १२० कर्मप्रकृतियों को बांध सकते हैं। इसी तरह एक जीव भी पृथक्-पृथक् समय सब मिला कर १२० कर्मप्रकृतियों को बांध सकता है। क्योंकि जीव के मिथ्यात्वादि परिणामों के अनुसार कार्मणपुद्गल १२० प्रकार में परिणत हो सकते हैं। इसी कारण १२० कर्म-प्रकृतियाँ बन्धयोग्य मानी जाती हैं। बन्धयोग्य १२० उत्तरकर्मप्रकृतियाँ : एक दृष्टि में बन्धयोग्य १२० कर्म-प्रकृतियों के मूल कर्मों के नाम और उनकी उतर• प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है__ (१) ज्ञानावरणीय के ५ भेद, (२) दर्शनावरणीय के ९ भेद, (३) वेदनीय के २ भेद, (४) मोहनीय के २६ भेद, (५) आयुकर्म के ४ भेद, (६) नामकर्म के ६७ भेद, (७) गोत्रकर्म के २ भेद, और (८) अन्तरायकर्म के ५ भेद। इन सब ज्ञानावरणीयादि कर्मों के ५+९+२+२६+४+६७+२+५=१२० भेद यानी १२० कर्मप्रकृतियाँ बन्धयोग्य मानी गई हैं।२ १. (क) जिनवाणी, साधना-विशेषांक, सन् १९७१ जनवरी, फरवरी, मार्च से भावांश ग्रहण, पृ.१९ (ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि) से भावांश ग्रहण, पृ. १४३ २. (क) कर्मग्रन्थ भाग २, गा. १ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ५१ (ख) देखें-पंचसंग्रह में (ग) पंचणव दोण्णि छव्वीसमवि य चउरो कमेण सत्तट्ठी। दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ बंध-पयडीओ ॥ -गो. जीवकाण्ड गा. ३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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