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________________ ४१२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ स्थिति आवलिका से अधिक होती है, तथापि अनुदयमान होने के कारण उसकी उदीरणा उक्त नियम के अनुसार नहीं होती। तीसरे (मिश्र) गुणस्थान में आठ कर्म की उदीरणा मानी जाती है, क्योंकि इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती। इस कारण आयु की अन्तिम आवलिका में, जबकि उदीरणा रुक जाती है, इस गुणस्थान का संभव ही नहीं है। सातवें (अप्रमत्त), आठवें (अपूर्वकरण) और नौवें (अनिवृत्तिबादर) गुणस्थान में आयु और वेदनीय कर्म के सिवाय छह कर्म की उदीरणा होती है। इसका कारण यह है कि इन दो (आयु और वेदनीय) कर्मों की उदीरणा के लिए जैसे अध्यवसाय आवश्यक हैं, उक्त तीन गुणस्थानों में अतिविशुद्धि होने के कारण वैसे अध्यवसाय नहीं होते। __ सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में छह अथवा पांच कर्मों की उदीरणा होती है। आयु और वेदनीय की उदीरणा न होने के समय छह कर्म की तथा उक्त कर्मद्वय तथा मोहनीय कर्म की उदीरणा न होने के समय पांच कर्म की समझनी चाहिए। मोहनीय कर्म की उदीरणा दशम गुणस्थान की अन्तिम आवलिका में रुक जाती है; वह इसलिए कि उस समय उसकी स्थिति आवलिका-प्रमाण शेष रहती है। ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में आयु, वेदनीय और मोहनीय कर्म की उदीरणा न होने के कारण शेष पांच कर्मों की उदीरणा होती है। इस गुणस्थान में उदयमान न होने के कारण मोहनीय कर्म की उदीरणा निषिद्ध है। बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में अन्तिम आवलिका को छोड़कर अन्य सब समय में आयु, वेदनीय और मोहनीय के सिवाय पांच कर्मों की उदीरणा होती रहती है। अन्तिम आवलिका में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय की स्थिति आवलिका-प्रमाण शेष रहती है। इस कारण उनकी उदीरणा रुक जाती है। और शेष दो (नाम और गोत्र) कर्मों की उदीरणा रहती है। इस प्रकार क्षीणमोह गुणस्थान में पांच या दो कर्मों की उदीरणा मानी है। तेरहवें गुणस्थान में अघातिकर्मचतुष्टय ही शेष रहते हैं, इनमें से आयु और वेदनीय की उदीरणा तो पहले से रुकी हुई है। इसी कारण सयोगिकेवली नामक गुणस्थान में सिर्फ दो कर्मों (नाम और गोत्र) की उदीरणा मानी गई है। चौदहवें अयोगि-केवली गणस्थान में योग का अभाव होने से उदीरणा का अभाव है, क्योंकि योग के बिना उदीरणा हो नहीं सकती और इस गुणस्थान में योगों का निरोध हो जाता है। १. (क) उइरंति पमत्तंता , सगट्ठ मीसट्ठ-वेय-आउ-विणा। छग अपमत्ताइ तओ, छ पंच सुहुमो पणुवसंतो॥ ६१॥ पण दो खीणदुजोगीणुदीरगु ......... ॥ ६२/१ ___ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (शेष पृष्ठ ४१३ पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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