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________________ गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४१३ निष्कर्ष यह है कि तीसरे गुणस्थान में आठ ही कर्मों का उदीरणास्थान, पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान में सात या आठ कर्मों का, तथा सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक एक आवलिका शेष रहे तब तक छह कर्मों का और दसवें की अन्तिम आवलिका से बारहवें गुणस्थान की अन्तिम आवलिका शेष रहने तक पांच कर्मों का तथा बारहवें की अन्तिम आवलिका से तेरहवें गुणस्थान के अन्त तक दो कर्मों का उदीरणास्थान पाया जाता है। चौदहवें गुणस्थान में योगों का अभाव होने से उदीरणा नहीं होती। अत: चौदहवाँ गुणस्थान अनुदीरक है। (१०) गुणस्थानों में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा गुणस्थानों में अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि ग्यारहवें गुणस्थान वाले जीव अन्य सभी गुणस्थान वाले जीवों से अन्य हैं, क्योंकि ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशमश्रेणि का है। अतः उपशमश्रेणि के प्रतिपद्यमान (किसी विवक्षित समय में उस अवस्था को पाने वाले) जीव चौवन पाये जाते हैं, जबकि पूर्व-प्रतिपन्न (किसी विवक्षित समय पहले से इस अवस्था को प्राप्त किये हुए) एक, दो या तीन आदि पाये जाते हैं। बारहवाँ गुणस्थान क्षपकश्रेणि का है। क्षपकश्रेणि-प्रतिपद्यमान बारहवें गुणस्थान वाले जीव उत्कृष्ट १०८ और पूर्वप्रतिपन्न जीव शत-पृथक्त्व (यानी दो सौ से नौ सौ तक) पाये जाते हैं। इसलिए ग्यारहवें गुणस्थान वाले जीवों से बारहवें गुणस्थान वाले जीव संख्यातगुणे कहे गए हैं। अर्थात्-ग्यारहवें गुणस्थान वाले जीव अल्प और बारहवें गुणस्थान वाले उनसे संख्यातगुणे माने गए हैं। आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान वाले जीव उपशमक और क्षपक, दोनों श्रेणियों में पाये जाते हैं। अतः उभयश्रेणि वाले ये तीनों गुणस्थान वाले जीव आपस में समान हैं, किन्तु बारहवें गुणस्थान वालों की अपेक्षा विशेषाधिक हैं। .. तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान, अप्रमत्त और प्रमत्त गुणस्थान वाले जीव पूर्वपूर्व से उत्तरोत्तर संख्यातगुणे हैं। अर्थात्-आठवें गुणस्थान वालों से तेरहवें गुणस्थान वाले संख्यातगुणे इसलिए कहे गए हैं कि ये जघन्य दो करोड़, और उत्कृष्ट नौ करोड़ होते हैं। सयोगिकेवलि गुणस्थान वालों से सातवें (अप्रमत्त) गुणस्थान वाले संख्यातगुणे इसलिए हैं कि वे दो हजार करोड़ पाये जाते हैं। इसी तरह सातवें गुणस्थान वालों से छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले इसलिए संख्यातगुणे हैं कि वे नौ । (पृष्ठ ४१२ का शेष) ... (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा० ६१, ६२ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १९० से १९२ (ग) इसकी प्ररूपणा पंचसंग्रह द्वार २ गा०८०-८१ में है। ___ (घ) गोम्मटसार जीवकाण्ड गा० ६२२ से ६२८ तक कुछ भिन्नरूप से प्ररूपित है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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