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________________ ४१० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ से शेष नौ हेतु ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पाये जाते हैं । तेरहवें गुणस्थान में सिर्फ ७ हेतु हैं। सत्यमनोयोग, असत्यामृषा - मनोयोग सत्यभाष और असत्यामृषा वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कार्मण काययोग, यों कुल मिलाकर सात बन्धहेतु हैं। चौदहवें गुणस्थान में योग का अभाव है, इसलिए इसमें बन्धहेतु का सर्वथा अभाव है। (६) गुणस्थानों में बन्ध की प्ररूपणा मूल प्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा तीसरे गुणस्थान के सिवाय पहले से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ६ गुणस्थानों में सात या आठ मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। आयुकर्म के बन्ध के समय आठ का और उसे न बांधने के समय सात का बन्ध समझना चाहिए। तीसरे (मिश्र), आठवें (अपूर्वकरण) और नौवें (अनिवृत्तिबादर) गुणस्थान में आयुष्यकर्म का बन्ध न होने से सात का ही बन्ध होता है। आठवें और नौवें गुणस्थान में परिणाम इतने अधिक विशुद्ध हो जाते हैं, जिससे उनमें आयु-बन्ध-योग्य परिणाम ही नहीं रहते तथा तीसरे गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें आयु का बन्ध नहीं होता। अतएव इन तीन गुणस्थानों में ७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में ६ प्रकृतियों का बन्ध होता है, क्योंकि उसमें आयु और मोहनीय, इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। परिणाम अतिविशुद्ध हो जाने से आयु का बन्ध और बादर कषायोदय न होने से मोहनीय का बन्ध इस गुणस्थान में वर्जित है। ग्यारहवें (उपशान्तमोह), बारहवें (क्षीणमोह) और तेरहवें ( सयोगी केवली ) गुणस्थान में केवल एक सातावेदनीय का बन्ध होता है, क्योंकि उसमें कषायोदय सर्वथा न होने से अन्य किसी भी कर्मप्रकृति का बन्ध संभव नहीं है। निष्कर्ष यह है कि तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में सात का ही बन्धस्थान, तथा पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में सात या १. (क) अपमत्तंता सत्त- ट्ठ, मीस. अपुव्व-बायरा सत्त । बंधइ छस्सुहुमो, एगमुवरिमा बंधगा अजोगी ॥ ५९ ॥ - चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा० ५९ विवेचन ( पं० सुखलाल जी), पृ० १८७, १८८ (ग) ५९ वीं से ६२ वीं गाथा - पर्यन्त बंधादि प्ररूपणा का समर्थन पंचसंग्रह द्वार ५, गा० २, ३, ५ में देखें। (घ) यह विचार नन्दीसूत्र गा० ३ की मलयगिरि वृत्ति में भी है। (ङ) बंधादि चारों की प्ररूपणा मूल कर्म प्रकृतियों को लेकर की गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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