SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४०९ .छठा गुणस्थान सर्वविरतिरूप है। इसलिए इस गुणस्थान में २६ उत्तरबंधहेतु हैं। इसमें १२ अविरतियों में से ११ अविरतियाँ नहीं होती, साथ ही प्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क भी नहीं होता, जिसका उदय पांचवें गुणस्थान-पर्यन्त ही रहता है। इस प्रकार पंचम गुणस्थान-सम्बन्धी ३९ हेतुओं में से ११+४=१५ बन्धहेतु घटा देने से २४ शेष रहे। ये चौबीस तथा आहारकद्विक मिलाने से २६ उत्तरबन्धहेतु छठे गुणस्थान में हैं। इस गुणस्थान में आहारक लब्धिधारी मुनि आहारकलब्धि के प्रयोग द्वारा आहारकशरीर रचते हैं। इसी से छब्बीस हेतुओं में आहारकद्विक परिगणित है। ___ वैक्रिय शरीर के प्रारम्भ और परित्याग के समय वैक्रियमिश्र तथा आहारक शरीर के प्रारम्भ और परित्याग के समय आहारकमिश्र योग होता है। परन्तु उस समय प्रमत्तभाव होने के कारण सातवाँ गुणस्थान नहीं होता। इस कारण इस गुणस्थान के बन्ध-हेतुओं में ये दो योग नहीं गिने गए हैं। अतएव अप्रमत्त-संयत नामक सप्तम गुणस्थान में पूर्वोक्त छब्बीस में से वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र, ये दो योगों के सिवाय शेष चौबीस बन्धहेतु होते हैं। अपूर्वकरण नामक अष्टम गुणस्थान में बाईस बन्धहेतु हैं। इस गुणस्थान में वैक्रिय और आहारक ये दो काययोग भी नहीं होते। इन दोनों के न होने का कारण है-वैक्रिय शरीर वाले को वैक्रिय काययोग और आहारक शरीर वाले को आहारक काययोग होता है। और इन दो शरीरों वाले अधिक से अधिक सातवें गुणस्थान के ही अधिकारी होते हैं, आगे के गुणस्थानों के नहीं। नौवें अनिवृत्ति-बादर गुणस्थान में बन्धहेतु सोलह हैं। इस गुणस्थान में हास्यषट्क (हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा) का उदय नहीं होता, क्योंकि हास्यषट्क का उदय आठवें गुणस्थान तक ही सम्भव है। इसलिए आठवें गुणस्थान के बाईस बन्धहेतुओं में से ६ हास्यषट्क (कषाय) को कम करने पर शेष १६ बन्धहेतु नौवें अनिवृत्तिबादर नामक नौवें गुणस्थान में होते हैं। तीन वेद और संज्वलन-त्रिक (संज्वलन कषाय के क्रोध, मान, माया), इन ६ का उदय नौवें गुणस्थान तक ही रहता है। अतः इन ६ को छोड़कर दस बन्धहेतु दसवें गुणस्थान में होते हैं। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में संज्वलन-लोभ कषाय कम होने से सिर्फ नौ बन्धहेतु ही रहते हैं- चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिक काययोग। संज्वलन लोभ का उदय १०वें गुणस्थान तक ही रहता है। अतः इसके सिवाय पूर्वोक्त १० में १. (क) अछ-हास सोल बायरि, सुहमे दस वेय-संजलण-ति-विणा। . खीणुवसंति अलोभा, सजोगि पुव्वुत्त सगजोगा॥५८॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ _ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा० ५८ का विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १८४ से १८६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy