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________________ ३७८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ उपशान्त हो (दबा दिये) जाने से अथवा पूर्णतया क्षय हो जाने से जीव को शुद्धनिर्मल स्व-भाव (स्व-रूप) के दर्शन हो जाते हैं। यों उपशमित (दबाई हुई, किन्तु सत्ता में अवस्थित) तथा नष्ट (समूल क्षय) हुई, इन दोनों स्थितियों या भूमिकाओं को बतलाने के लिए क्रमशः ग्यारहवाँ उपशान्त-मोह-वीतराग और बारहवाँ क्षीणमोह-वीतराग नामक गुणस्थान है। बारहवें गुणस्थान में दर्शनशक्ति और चारित्रशक्ति के विपक्षी (प्रतिबन्धक) संस्कार (कारण-कषाय) सर्वथा क्षय हो जाते हैं, जिससे शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। मोहनीय कर्म के क्षय होने के अनन्तर ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन तीन घातिकर्मों का क्षय हो जाने से विकासगामी साधक अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख और अनन्त आत्मशक्ति, इन निज गुणों को प्राप्त कर लेता है। किन्तु अभी आयु-शरीरादि योगों का सम्बन्ध बना हुआ होने से योगयुक्त वीतरागी जीव सयोगी केवली नामक तेरहवें गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं और बाद में उन्हें जीवन्मुक्त अरिहन्त दशा प्राप्त हो जाती है। शरीरादि योगों से रहित हो जाने पर शुद्ध ज्ञान-दर्शनयुक्त, आत्मावस्था स्वरूप रमणता या स्वरूप-स्थिति आत्मा में प्रगट हो जाती है, तब उन उन जीवों का कथन अयोगी केवली नामक चौदहवें गुणस्थान नाम से किया जाता है। इस विदेह-दशा को प्राप्त करना मुमुक्षु जीव का परम लक्ष्य है। इस दशा को प्राप्त करने के बाद वह आत्मा शाश्वत, निर्मल, सिद्ध, बुद्ध मुक्त होकर स्वरूप में स्थिर हो जाता है। वह सदा-सदा के लिए समस्त कर्मों से रहित निरंजन, निराकार परब्रह्म हो जाता है। चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त आत्मा अपने पूर्णरूप में यथार्थरूप से विकसित होकर सदा के लिए स्वरूप में सुस्थिर दशा प्राप्त कर लेती है। इसी को मोक्ष या कर्मों से सर्वथा मुक्ति कहते हैं। निष्कर्ष गुणस्थान के इन चौदह भेदों में पहले की अपेक्षा दूसरे में, दूसरे की अपेक्षा तीसरे में, इस प्रकार पूर्व-पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा परवर्ती गुणस्थान में प्रायः विकास की मात्रा अधिक होती है। विकास के इस क्रम का निर्णय आत्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है। स्थिरता का तारतम्य दर्शनमोह और चारित्रमोह की शक्ति की शुद्धि के तारतम्य पर निर्भर है। प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थान में आत्मा की दर्शन और चारित्र शक्ति का विकास इसलिए नहीं हो पाता कि उनमें उनके प्रतिबन्धक कारणों की अधिकता रहती है। चतुर्थ आदि गुणस्थानों में वे १. द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. १ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. १०-११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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