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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३७९ प्रतिबन्धक संस्कार मन्द - मन्दतर होते चले जाते हैं, जिससे उन-उन गुणस्थानों में दर्शन - चारित्र शक्तियों के विकास का क्रम प्रारम्भ हो जाता है । प्रतिबन्धक संस्कारों (कारणों) को कर्मविज्ञान की भाषा में कषाय कहते हैं। जिसके अनन्तानुबन्धी आदि मुख्यतः ४ विभाग है। इनमें से प्रथम विभाग दर्शनशक्ति का प्रतिबन्धक होता है, जबकि शेष तीन विभाग चारित्रशक्ति के प्रतिबन्धक हैं । संक्षेप में, आत्मा की समस्त शक्तियों का अत्यधिकरूप से अव्यक्त रहना प्रथम मिथ्यात्व - गुणस्थान है; और क्रमिक विकास करते हुए परिपूर्ण रूप को व्यक्त करके आत्मस्थ हो जाना चौदहवाँ अयोगिकेवली गुणस्थान है। यह चौदहवाँ गुणस्थान चतुर्थ - गुणस्थान में देखे गये परमात्मत्व का तादात्म्य है। पहले और चौदहवें गुणस्थानों के बीच में जो दो से लेकर तेरहवें पर्यन्त गुणस्थान हैं, वे कर्म और आत्मा के द्वन्द्वयुद्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली उपलब्धियों के नाम हैं। गाढ़ कर्मबन्ध से लेकर पूर्णतः कर्ममुक्ति तक के क्रमिक विकास के मार्ग में आत्मा को किन-किन भूमिकाओं पर आना पड़ता है, यही गुणस्थानों के क्रमबद्ध सोपान हैं, अथवा उनकी क्रमबद्ध श्रृंखला की एक-एक कड़ियाँ हैं। १. द्वितीये कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (मरुधरकेसरीजी), पृ. २८, २९, ३० For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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