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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३७७ __ जैसे चारित्र-रहित चौथे गणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवों के तीन भेद हैं, वैसे ही चारित्र-सहित सम्यक्त्वी जीवों के भी मुख्यतया तीन भेद हैं-(१) एकदेश (अंशतः) चारित्र का पालन करने वाले और (२) पूर्णचारित्र का पालन करने वाले। इन दोनों में से एकदेश चारित्र का पालन करने वाले जीवों के लिए पांचवें देशविरत गुणस्थान का कथन है, जबकि सर्वांशत (पूर्ण) चारित्र का पालन करने वाले जीवों के लिए भी प्रमादवश अतिचार (दोष) लगाने वाले प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। (३) जबकि सम्पूर्ण चारित्र का निरतिचार (निर्दोष) पालन करने वाले अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान वाले कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में-प्रमाद-सहित सर्वसंयमी जीव और प्रमादरहित सर्वसंयमी जीव क्रमशः प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत कहलाते हैं। यद्यपि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव अभी पूर्ण वीतरागी नहीं हए हैं, वे अभी छद्मस्थ हैं, कर्मावृत हैं, लेकिन वीतराग दशा प्राप्त करने की ओर उन्मुख हो जाते हैं। अतः अप्रमत्त-संयत, गुणस्थानवी जीवों में से कितने ही जीव कर्मों का व्यवस्थित रीति से क्षय करने के लिए श्रेणिक्रम पर आरोहण करते हैं; और उनके परिणाम शुद्ध से शुद्धतर होते जाते हैं। श्रेणि का यह क्रम पहले की अपेक्षा दूसरे, दूसरे की अपेक्षा तीसरे समय में अपूर्व ही होता है। इस श्रेणिक्रम में एक की दूसरे से, दूसरे की तीसरे आदि की तुलना या समानता नहीं होती है। अतः ऐसी श्रेणिक्रम स्थिति वाले जीव अपूर्वकरण या निवृत्तिबादर नामक आठवें गुणस्थानवर्ती कहलाते . . यद्यपि श्रेणि-आरोहण के कारण क्रमिक विशुद्धता बढ़ने से जीव के कषाय भावों में काफी निर्बलता-मंदता आ जाती है, तथापि उन कषायों में पुनः उद्रेक होने की शक्ति बनी रहती है। अत: ऐसे कषाय-परिणाम वाले जीवों का बोध कराने के लिए आठवें के पश्चात् नौवें अनिवृत्तिबादर-सम्पराय नामक गुणस्थान का कथन किया गया। ... नौवें गुणस्थानवी जीव के द्वारा प्रतिसमय कषायों को कृश करने के प्रयत्न चालू रहते हैं। ऐसी स्थिति में एक समय ऐसा आता है, जब संसार के मूल कारणभूत कषायों की झलक-सी रह जाती है। इस भूमिका वाले जीव सूक्ष्म-सम्पराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं। जैसे झांई मात्र अतिसूक्ष्म अस्तित्व रखने वाली वस्तु तिरोहित या नष्ट हो जाती है, वैसे ही जो कषायवृत्ति अत्यन्त कृश हो ज्ञान से झलक मात्र रह गई है, उसके १. द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा.१ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ.८ से १० तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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