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________________ ३७६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ तृतीय गुणस्थान का स्वरूप और कार्य । तृतीय गुणस्थान आत्मा की उस मिश्रित अवस्था का नाम है, जिसमें न तो केवल सम्यग्दृष्टि होती है, और न केवल मिथ्यादृष्टि। अपितु इस गुणस्थानवर्ती आत्मा की आध्यात्मिक स्थिति दोलायमान बन जाती है। अतएव तृतीय गुणस्थानवी जीव की बुद्धि स्वाधीन एवं व्यवसायात्मिका न होने के कारण संदेहशील होती है। उसके सामने जो कुछ आया, वह सब उसे सत्य प्रतीत होता है। न तो वह तत्व को एकान्त अतत्वरूप से जानता है और न ही तत्व-अतत्व का यथार्थ एवं पूर्ण विवेक कर पाता ___ कोई आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करने वाला जीव (आत्मा) प्रथम गुणस्थान से निकल कर सीधे ही तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है और कोई अपक्रान्ति करने वाला जीव भी चतुर्थ आदि गुणस्थान से गिरकर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति दोनों प्रकार की स्थिति वाले, दोनों प्रकार के आत्माओं का आश्रय स्थान यह तृतीय गुणस्थान है। यही तीसरे गुणस्थान की दूसरे गुणस्थान से भिन्नता-विशेषता है।१।। चौदह गुणस्थानों में क्रमिक आत्मिक उत्कर्ष का विहंगावलोकन सामान्यतः आध्यात्मिक दृष्टि से जीवों के दो प्रकार हैं-मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि। अर्थात्-कितने ही जीव गाढ़ अज्ञानावृत और विपरीत बुद्धि वाले होते हैं, जबकि कितने ही विवेकी, ज्ञानी, प्रयोजनभूत लक्ष्य के मर्मज्ञ एवं आदर्श का अनुसरण करके जीवन बिताने वाले होते हैं। उक्त दोनों प्रकार के जीवों में अज्ञानी और विपरीत बुद्धि वाले जीवों को मिथ्यात्वी कहते हैं, उनका बोध कराने के लिए पहला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। इसके विपरीत जो सम्यक्त्वधारी सम्यग्दृष्टि होते हैं, उनके भी तीन भेद हैं, जिनका बोध कराने के लिए क्रमशः सास्वादन सम्यग्दृष्टि, मिश्रदृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान हैं। सम्यक्त्व के वे तीन भेद इस प्रकार हैं-(१) सम्यक्त्व से गिरते समय स्वल्प सम्यक्त्व वाले, (२) अर्धसम्यक्त्व और अर्ध मिथ्यात्व वाले, (३) विशुद्ध सम्यक्त्व वाले, किन्तु चारित्र-रहित। इनमें से स्वल्प सम्यक्त्व वाले जीवों के लिए दूसरे, अर्धसम्यक्त्व और अर्धमिथ्यात्व वाले जीवों के लिए तीसरे मिश्रगुणस्थान और विशुद्ध सम्यक्त्व, किन्तु चारित्र-रहित जीवों के लिए चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का कथन किया गया है। १. चतुर्थ कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी), पृ. २८ से २९ २. द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. १ विवेचन , (मरुधरकेसरीजी), पृ.८ से ११ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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