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________________ मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २७३ आगे के गुणस्थानों में नहीं होता। पांचवें गुणस्थान में उक्त कषाय चतुष्क का उदय भी नहीं होता, इस कारण उनका बन्ध भी नहीं होता। अतः ये ४ प्रकृतियाँ कम हो' जाने से ७०-४-६६ प्रकृतियाँ का बन्ध पंचम गुणस्थान में माना जाता है। अपर्याप्ततिर्यञ्च में प्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा अपर्याप्त तिर्यश्च तीर्थकर नामकर्म आदि ११ (तीर्थंकरनाम, देवद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देवायु और नरकत्रिक, यो कुल मिलाकर ग्यारह) प्रकृतियों को छोड़कर शेष १०९ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। सामान्यतः सर्वजीवों की बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से उक्त ११ प्रकृतियों को अपर्याप्त तिर्यञ्च और अपर्याप्त मनुष्य नहीं बांधते हैं। पर्याप्तमनुष्यों के बन्ध-स्वामित्व की प्ररूपणा मनुष्यगति-नामकर्म और मनुष्यायुकर्म के उदय से जो मनुष्य कहलाते हैं, अथवा जो मनन के द्वारा जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, धर्म-अधर्म एवं हित-अहित का विचार करते हैं अथवा जो मन के द्वारा गुण-दोषादि का विचार, या स्मरण कर सकें, मन के विषय में जो उत्कृष्ट हैं, उन्हें मनुष्य कहते हैं। तिर्यंचों के समान ही मनुष्यों के भी मुख्यतया पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो भेद हैं। पर्याप्त मनुष्य सामान्य की अपेक्षा से, १२० प्रकृतियों का बन्ध करता है। .. प्रथम गुणस्थान में पर्याप्त मनुष्य के ११७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। पूर्वोक्त सामान्यतया कथित १२० प्रकृतियों में से पर्याप्ततिर्यंचों के समान ही पर्याप्त-मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म एवं आहारक द्विक इन तीन प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते; क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्यक्त्वी को और आहारकद्विक का बन्ध अप्रमत्तसंयत मुनि के होता है, मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सम्यक्त्व अप्रमत्तसंयम, दोनों ही सम्भव नहीं हैं। द्वितीय गुणस्थान में पर्याप्त मनुष्य १०१ प्रकृतियों का बन्ध करता है। पूर्वोक्त ११७ प्रकृतियों में से दूसरे कर्मग्रन्थ में कथित १६ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता, १. (क) विणु नरयसोल सासणि सुराउ अण एगतीस विणु मीसे। ससुराउ सयरि सम्मे बीय-कसाए विणा देसे॥८॥ -कर्मग्रन्थ गा. ३ . (ख) तृतीय कर्मग्रन्थ, गा. ८ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. २७, २८ (ग) नरयतिग जाइथावर-चउ हुंडायव छिवट्ठ नपुमिच्छं। सोलतो इगहिय सयं सासणि ॥ -कर्मग्रन्थ २/४ "तिरि-थीण-दहगति। अणमज्झागिइ-संघयण-चउ निउज्जोय कुखग-इत्थि त्ति ॥ -कर्मग्रन्थ २।४,५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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