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________________ २७२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ (एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय जाति तक), स्थावरचतुष्क (स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम) हुंडकसंस्थान, सेवार्तसंहनन, आतपनाम, नपुंसकवेद और मिथ्यात्वमोहनीय। तृतीय गुणस्थानवर्ती पर्याप्ततिर्यञ्चों की बन्धस्वामित्व प्ररूपणा तीसरे मिश्रगुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यञ्चों के ६९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। द्वितीय गुणस्थानवर्ती पर्याप्ततिर्यञ्चों के जो १०१ प्रकृतियों का बन्ध बताया गया था, उनमें से आयुबन्ध निमित्तक देवायु, तथा अनन्तानुबन्धी कषायनिमित्तक २५ प्रकृतियों एवं मनुष्यगति-प्रायोग्य ६ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से कुल ३२ प्रकृतियों को दूसरे गुणस्थान की बन्धयोग्य १०१ प्रकृतियों मे से कम कर देने पर शेष ६९ प्रकृतियों का ही बन्ध होता है। तृतीय गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यञ्चों की अबन्धयोग्य प्रकृतियाँ ये अबन्धयोग्य ३२ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-(१) देवायु, (२-४) तिर्यञ्चत्रिक, (५-७) स्त्यानर्द्धित्रिक (निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानर्द्धि); (८-१०) दुर्भगत्रिक (दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय), (११-१४) अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क, (१५-१८). मध्यम संस्थानचतुष्क, (१९-२२) मध्यम-संहनन-चतुष्क, (२३) नीचगोत्र, (२४) उद्योतनाम, (२५) अशुभ विहायोगति, (२६) स्त्रीवेद, (२७-२९) मनुष्यत्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु, (३०-३१) औदारिकद्विक (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग) एवं (३२) वज्रऋषभनाराक्च संहनन (ये मनुष्यगतियोग्य प्रकृतियाँ) यों कुल मिलाकर १+२५+६=३२ प्रकृतियाँ मिश्रगुणस्थानवर्ती पर्याप्ततिर्यंचों के नही बंधती हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती पर्याप्ततिर्यंचों के बन्ध-स्वामित्व की प्ररूपणा चतुर्थगुणस्थानवर्ती पर्याप्ततिर्यंचों के ७० प्रकृतियों का बन्ध होता है। तृतीय गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यञ्चों के ६९ प्रकृतियों के साथ इस गुणस्थान में देवायु का बन्ध संभव होने से ६९+१=७० प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है। तीसरे गुणस्थान में आयु का बन्ध न होने से तथा चौथे में परभव की आयु का बन्ध सम्भव होने से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यश्च और मनुष्य दोनों देवगति योग्य प्रकृतियों को बांधते हैं, मनुष्य गतियोग्य प्रकृतियों को नहीं। अतः चतुर्थ गुणस्थान में पर्याप्ततिर्यञ्चों के देवायु का बन्ध होता है। पञ्चम गुणस्थानवर्ती पर्याप्ततिर्यंचों के बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा पंचम देशविरत-गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यञ्चों के ५वें गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का बन्ध होता है; क्योंकि अप्रत्याख्यानावरण कषाय-चतुष्क का बन्ध पांचवें और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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