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________________ २७४. कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ क्योंकि इन १६ प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद प्रथम गुणस्थान के अन्तिम समय में ही हो जाता है। तृतीय गुणस्थान में पर्याप्त मनुष्य पर्याप्ततिर्यंच के लिये बताये गए बन्ध स्वामित्व के अनुसार दूसरे गुणस्थान की १०१ प्रकृतियों में से देवायु तथा अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से बंधने वाली २५ प्रकृतियों तथा मनुष्यगति योग्य ६ प्रकृतियाँ-कुल मिलाकर १+२५+६=३२ प्रकृतियाँ कम करने से. शेष रही ६९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। यद्यपि चौथे गुणस्थान में पर्याप्त मनुष्य तृतीय गुणस्थान की बन्धयोग्य ६९ प्रकृतियों के साथ देवायु का बन्ध करने के कारण ६९+१-७० प्रकृतियों का बन्ध करना चाहिए था, किन्तु पर्याप्त मनुष्य के उक्त ७० प्रकृतियों के साथ-साथ तीर्थंकर नामकर्म का भी बन्ध सम्भव होने से वे ६९+१+१=कुल ७१. प्रकृतियाँ बांधते हैं। द्वितीय कर्मग्रन्थ में कथित बन्धाधिकार की अपेक्षा पर्याप्त मनुष्य तथा तिर्यंच के. तीसरे मिश्र और चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्रमशः ७४ और ७७ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है। __बन्धाधिकार में सामान्य रूप से तीसरे मिश्रगुणस्थान में पर्याप्त मनुष्यों और तिर्यंचों के जो ६९ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है उसमें पर्याप्तमनुष्य के लिए पहले कही हुई मनुष्यद्विक आदि ६ प्रकृतियों में से मनुष्यायु को छोड़कर शेष ५ प्रकृतियों को मिलाने से ७४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझा जा सकता है। ___ इसी प्रकार चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त ,मनुष्य ७१ प्रकृतियाँ . बांधने की यहाँ बतायी गयी, उसमें चतुर्थ गुणस्थान की ७१ प्रकृतियों के साथ मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक, वज्रऋषभनाराक्च संहनन, और मनुष्यायु, इन ६ प्रकृतियों को मिलाने से कर्मस्तव बन्धाधिकार में उक्त ७७ प्रकृतियों के बन्ध की संगति बैठ जाती है। ___पांचवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पर्याप्त मनुष्य का बन्धस्वामित्व प्रत्येक गुणस्थान में दूसरे कर्मग्रन्थ के बन्धाधिकार में उक्त बन्धयोग्य प्रकृतियों के अनुसार १. (क) इय चउगुणेसु वि नरा परमंजया सजिण ओहु देसाई। जिण-इक्कारस-हीणं, नवसउ अपजत्त-तिरिय-नरा ॥९॥ . -तृतीया कर्मग्रन्थ व्याख्या, पृ. ३० से ३२ तक। (ख) तित्थयराऽहारग-दुगवज, मिच्छंमि सत्तरसयं॥ -कर्मग्रन्थ भा. २, गा. ३ (ग) सुराउ अण एगतीस विण मीसे। -तृतीय कर्मग्रन्थ गा. ८ में ३२ प्रकृतियों का वर्णन आ चुका है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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