SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४ .. निशीथ सूत्र मार्गादि में पात्र याचना विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा गामंतरंसि वा गामपहंतरंसि वा पडिग्गहं ओभासिय ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ॥५०॥ कठिन शब्दार्थ - गामंतरंसि - ग्रामान्तर में - दो गाँवों के बीच के भाग में, गामपहंतरंसि - ग्रामपथान्त में - गांव के दो रास्तों के मध्य, ओभासिय - ओभासिय - जोर-जोर से भाषित कर - बोल कर या मांग कर, जायइ - याचित करता है - मांगता है। भावार्थ - ५०. जो भिक्षु ग्रामान्तर या मार्गान्तर में अपने किसी पारिवारिकजन से या किसी अन्य से, उपासक - श्रावक से या श्रावकेतर से जोर-जोर से बोल कर - कह कर - मांग कर पात्र की याचना करता है अथवा याचना करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। _ विवेचन - भिक्षाचर्या में प्रत्येक कार्य देश, काल, भाव के अनुसार करना विहित है। वैसा न करना धार्मिक और लौकिक दोनों ही दृष्टियों से दोषपूर्ण है, अनुचित है। ___ उदाहरणार्थ - कोई भिक्षु मार्ग में चल रहा हो, दो ग्रामों के मध्यवर्ती किसी स्थान में, मार्गान्तर में कोई स्वजन, अन्यजन, श्रावक या श्रावकेतर व्यक्ति जाता हुआ मिल जाए तो उसे जोर-जोर से पुकार कर, यों रोक कर पात्र की याचना करना दोषपूर्ण है। पात्र भलीभांति एषणा - गवेषणा कर शुद्ध, निरवद्य विधि पूर्वक लिया जाना चाहिए। यों अकस्मात् पात्र की याचना करने में एषणा विषयक दोष लगता है। जिससे मांगा जाए यदि वह स्वजन या उपासक न हो, जैन भिक्षुओं के प्रति श्रद्धाशील न हो तो भिक्षु द्वारा ऐसा किया जाना उन्हें बड़ा अप्रिय तथा अव्यावहारिक लगता है। उनके मन में रोष भी होता है है। अपने पास होते हुए भी वे पात्र नहीं देते। इस प्रकार धर्म की अवहेलना, अपकीर्ति होती है। : परिषद् में आहूतकर स्वजनादि से पात्र-याचना विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा परिसामज्झाओ उट्ठवेत्ता पडिग्गहं ओभासिय ओभासिय जायइ जायंतं वा साइजह॥५१॥ कठिन शब्दार्थ - परिसामज्झाओ - परिषद् के मध्य - बीच में से, उद्धवेत्ता - उठा कर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy