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________________ चतुर्दश उद्देशक - पात्र कोरने का प्रायश्चित्त नहीं होता । इन सूत्रों में विविध जीव विषयक जो उल्लेख हुआ है, उनमें से कोई भी जीव हों तो उसे पात्र से निकालना, निकलवाना एवं निकाल कर देते हुए से लेना भिक्षु को नहीं कल्पता, क्योंकि जीव विराधना के कारण इससे अहिंसा महाव्रत दूषित होता है । यहाँ पात्र से अग्निकाय के जीव निष्कासित करने का जो उल्लेख हुआ है, उसका संबंध केवल मिट्टी के पात्रों के साथ है। क्योंकि काष्ठ एवं तुम्बिका के पात्रों में अग्नि नहीं रखी जाती क्योंकि वे उससे जल जाते हैं । पात्र कोरने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू पडिग्गहगं कोरेइ कोरावेइ कोरियं आहट्टु देज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ ४९ ॥ . कठिन शब्दार्थ- कोरेइ - कुरेद कर चित्रांकन करता है, कोरावेइ - कुरेद कर चित्रांकन करवाता है । ३२३ भावार्थ ४९. जो भिक्षु पात्र पर कुरेद कर चित्रांकन करता है, करवाता है या चित्रांकित कर दिए जाते हुए पात्र को गृहीत करता है अथवा गृहीत करने वाले का अनुमोदन . करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - पात्र पर कोरनी करने का अभिप्राय कुरेद कर उसे विशेष रूप से अंकित, चित्रांकित करना है। ऐसा करने के पीछे पात्र की विभूषा, शोभा या वह सुन्दर दिखे, ऐसा भाव रहता है। भिक्षु के लिए किसी भी प्रकार की बाह्य विभूषा, सज्जा वर्जित है। उसकी विभूषा और शोभा तो उसका शील, चारित्र या संयम है। इन्हीं से वह सुशोभित होता है । बाह्य शोभा या सुन्दरता का उसके जीवन में कोई महत्त्व नहीं है । अत एव उत्कीर्ण - खुदाई. द्वारा पात्र को सुन्दर बनाने का उपक्रम यहाँ प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। 7 - Jain Education International निशीथ भाष्य में इस संबंध में चर्चा आई है। भाष्यकार ने इसमें झुषिर दोष बतलाया हैं, क्योंकि पात्र पर कोरनी खुदाई करने से जो खुरदरापन या ऊँची नीची स्थिति उत्पन्न होती है, उनमें संलग्न सूक्ष्म जीव तथा आहार के चिपके हुए अंश को भलीभाँति शोधित नहीं किया जा सकता। वैसा करते समय सूक्ष्म जीवों की विराधना भी आशंकित है। यहाँ वह ज्ञातव्य है कि छोटे-छोटे तथ्यों को अलग-अलग सूत्रों में जो विस्तार से वर्णित किया गया है उसका आशय यह है कि भिक्षु के रोजमर्रा के किसी भी काम में जरा भी हिंसा का दुस्प्रसंग न बने। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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