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________________ चतुर्दश उद्देशक - पात्र प्राप्त करने हेतु ठहरने का प्रायश्चित्त . . ३२५ भावार्थ - ५१. जो भिक्षु परिषद् के बीच में से उठा कर अपने किसी पारिवारिकजन से, अन्य किसी व्यक्ति से, श्रावक से या श्रावकेतर से उच्च स्वर में बोलता हुआ पात्र की याचना करता है अथवा याचना करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त 'परिसा - परिषद्' शब्द 'परि' उपसर्ग तथा भ्वादिगण के अन्तर्गत परस्मैपदी 'सद्' धातु और 'क्विप्' प्रत्यय के योग से बना है। 'परितः सीदन्ति अस्यामिति परिषद्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जहाँ बहुत से व्यक्ति एकत्रित हों, वार्तालाप, परामर्श आदि करते हों, उसे परिषद् कहा जाता है। सभा, संगोष्ठी आदि के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है। साथ ही साथ जहाँ अपने स्थान में या अन्यत्र कहीं अनेक व्यक्ति मिल कर परस्पर वार्तालाप आदि कर रहे हों, उसे भी परिषद् कहा जाता है। __. जैसा कि पहले विवेचित है, भिक्षु को पात्रादि की याचना विवेकपूर्वक करनी चाहिए, उसे व्यावहारिक औचित्य का सदैव ध्यान रखना चाहिए। स्वजन, अन्यजन, उपासक या अनुपासक आदि से, जब उनमें से कोई परिषद्, सभा या संगोष्ठी में स्थित हो, (उसे) वहाँ से उठा कर, बुला कर पात्र की याचना नहीं करनी चाहिए अथवा अपने घर में ही जहाँ वह अपने पारिवारिकजनों या बंधु-बांधवों के साथ वार्तालाप कर रहा हो, वहाँ से बुलाते हुए भी उससे पात्र की याचना नहीं करनी चाहिए। पारस्परिक वार्तालाप में विघ्न होने से उसके मन में पीड़ा होती है, चिंतन, विमर्श में बाधा पहुँचती है। यदि वह धर्मानुरागी न हो तो उसके मन में रोष भी उत्पन्न होना आशंकित है, पात्र होते हुए भी वह मना कर सकता है। भिक्षु यदि वैसी स्थिति देखे तो उचित यह होता है कि वह एक ओर खड़ा हो कर, प्रतीक्षा करे तथा जब वार्तालाप या विमर्श-परामर्श समाप्त हो जाए, गृहस्थ उससे विरत हो . जाए तब उससे विविध पूर्वक याचना करे। यदि धर्मानुरागी गृहस्थ भिक्षु को आया देखकर परिषद् में से उठ कर स्वयं उसके पास आ जाए. और जिज्ञासा करे तब भिक्षु को उससे याचना करनी चाहिए। इन सबके विपरीत अविवेक पूर्ण याचना करना प्रायश्चित्त योग्य है। पात्र प्राप्त करने हेतु हरने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू पडिग्गहणीसाए उडुबद्धं वसइ वसंतं वा साइजइ॥५२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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