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________________ निशीथ सूत्र यहाँ यह भी ज्ञातव्य है जिस प्रकार गृहस्थ के पात्र का उपयोग करने से पूर्वकृत, पश्चात्कृत दोष आशंकित हैं, उसी प्रकार वस्त्र का उपयोग कर लौटाने में भी दोषों की संभावना रहती है। गृहस्थ के आसन - शय्यादि के उपयोग का प्रायश्चित्त २६६ - जे भिक्खू गिहिणिसेज्जं वाहेइ वाहेंतं वा साइज्जइ ॥ १२ ॥ कठिन शब्दार्थ - गिहिणिसेज्जं - गृहस्थ की निषद्या - बैठने सोने आदि का आसन, वाहेइ - उपयोग करता है । भावार्थ - १२. जो भिक्षु गृहस्थ की निषद्या - आसन, शय्या आदि का उपयोग करता है या उपयोग करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन इस सूत्र में प्रयुक्त 'णिसेज्ज' या निषद्या कृदन्त पद 'नि' उपसर्ग और 'सद्' धातु के योग से बना है। सद् धातु के पूर्व इकारान्त तथा उकारान्त उपसर्ग हो तो सद् का दन्त्य सकार मूर्धन्य षकार में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार 'निषीदति' क्रिया पद बनता है। 'निषीदितुं योग्यं निषद्यं निषद्या वा' जो निषीदन के योग्य होता है, उसे निषद्य या निषद्या (स्त्रीलिंग में) कहा जाता है । साधारणतः इसका अर्थ बैठने के अर्थ में है किन्तु उपलक्षण से बैठना, सोना आदि भी विहित है । भिक्षु अपनी ही निषद्या का उपयोग करता है । प्रतिलेखन आदि द्वारा वह उसकी निरवद्यता बनाए रखता है। गृहस्थ की निषद्या के उपयोग में पात्र, वस्त्र आदि की ज्यों पूर्वकृत्, पश्चात्कृत् दोषों का लगना आशंकित है। - निषद्या के अन्तर्गत पर्यंक, शय्या, पाट, बाजोट आदि का समावेश है। ये काष्ठ के हों तो प्रातिहारिक रूप में याचना कर लिये जा सकते हैं, किन्तु वे झुषिर नहीं होने चाहिये, सुप्रतिलेख्य होने पर ही ग्राह्य है । जे भिक्खू गिहितेइच्छं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ १३ ॥ Jain Education International कठिन शब्दार्थ - तेइच्छं - चिकित्सा । भावार्थ - १३. जो भिक्षु गृहस्थ की चिकित्सा करता है या करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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