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________________ द्वादश उद्देशक - पूर्वकर्मकृत दोष युक्त आहार-ग्रहण-प्रायश्चित्त २६७ विवेचन - साधु शास्त्र सम्मत मर्यादाओं की संवाहकता के साथ धार्मिक जीवन जीता है। अपने सांभोगिक साधुओं सहित साधु संघीय जीवन ही उसका अपना आध्यात्मिक किं वा . धार्मिक साधनामय क्षेत्र है। शास्त्रानुमोदित वस्त्र, पात्र, उपधि ग्रहण के अतिरिक्त वह कोई दूसरी प्रकार का अवलम्बन, सहारा गृहस्थ से नहीं लेता। गृहस्थ के प्रति उसका दायित्व धार्मिक उद्बोधन प्रदान करना है, जो उसके आध्यात्मिक विकास का पूरक है। __ गृहस्थ की ऐहिक आदि किसी प्रकार की सेवा-परिचर्या करना साधुचर्या से बहिर्गत है। इसीलिए यहाँ गृहस्थ की चिकित्सा करने का निषेध किया गया है। __उत्तराध्ययन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र आदि में स्पष्ट रूप में साधु द्वारा गृहस्थ की चिकित्सा करने का निषेध है, क्योंकि - १. अनेकविध चिकित्साओं में किसी न किसी रूप में सावध प्रवृत्तियों का योग बना रहता है। २. रुग्ण व्यक्ति को शीघ्र आरोग्य लाभ हेतु सावध प्रवृत्तियों के सेवन का परामर्श दिया जाता है, समर्थन या अनुमोदन भी होता है। ___३. चिकित्सा में यदि निरवद्यता भी रहे तो लाभ होने पर लोगों का परिचय बढता है, आवागमन बढता है, जो संयमाराधना में बाधक है। ४. यदि रुग्ण व्यक्ति को कुछ हानि हो जाय, चिकित्सा का विपरीत फल आए तो अपयश होता है, लोकनिंदा होती है। ____ इन सभी कारणों की अपेक्षा से इस सूत्र में गृहस्थों की चिकित्सा करना प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है। ... . पूर्वकर्मकृत दोषयुक्त आहार-ग्रहण-प्रायश्चित्त जे भिक्खू पुराकम्मकडेण हत्थेण वा मत्तेण वा द(व्वि )व्वीएण वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - पुराकम्मकडेण - पूर्वकृत कर्म दोषयुक्त। - भावार्थ - १४. जो भिक्षु पूर्वकृत कर्म दोषयुक्त हाथ, बर्तन, कुड़छी - चम्मच या पात्र से अशन, पान, खाद्य, स्वाध रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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