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________________ द्वादश उद्देशक - गृहस्थ के वस्त्र के उपयोग का प्रायश्चित्त २६५ अर्थ - वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्रियाँ और शय्या को पराधीनता से जो उपयोग (काम) में नहीं लेता है, वह त्यागी नहीं कहा जाता है। वहाँ ' जति' शब्द का प्रयोग किया गया है। ये सब वस्तुएं उपयोग में ली जाती है। खाने के काम में नहीं आती। इसलिए 'भुजति' या 'भुजई' शब्द का अर्थ सिर्फ खाना ही नहीं है किन्तु उपयोग में लेना भी है। तथा जैसा कि - पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ने अपने दशवकालिक सूत्र के छठे अध्ययन की ५१ वीं गाथा (कंसेसु ........परिभस्सइ) के अर्थ में लिखा है कि मुनि गृहस्थ के कुण्डा (चाहे वह मिट्टी का हो या धातु का हो) आदि को कपड़ा धोने, गरम पानी को ठण्डा करने आदि के काम में ले तो दोष लगता है और वह मुनि आचार से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए गृहस्थ के कुण्डे तथा कुण्डे के आकार के ढीबरा आदि को काम में लेना अर्थात् - उनमें वस्त्र आदि धोना मुनि को नहीं कल्पता है। .. यहाँ पर भी भुजइ' शब्द का अर्थ 'उपयोग में लेना' समझना चाहिए। अर्थात् गृहस्थ के यहां से लाये हुए प्रातिहारिक पात्र (बर्तन आदि) में मुनि खाना, वस्त्र धोना आदि कोई भी कार्य नहीं कर सकता है। ... ___ आगमों में साधु के लिए आठ वस्तुओं को 'अपडिहारी' (पुनः नहीं लौटाने योग्य) बताया है। उनमें 'पात्र' को भी बताया है। अतः पात्र (बर्तन) को साधु-साध्वी पडिहारा (पुनः लौटाने योग्य) ग्रहण नहीं करते हैं। ग्रहण करने पर जिनाज्ञा भंग होने से प्रायश्चित्त आता है। वही आशय उपर्युक्त सूत्र का भी समझना चाहिए। . गृहस्थ के वस्त्र के उपयोग का प्रायश्चित्त जे भिक्ख गिहिवत्थं परिहेइ परिहेंतं वा साइजइ॥११॥ - कठिन शब्दार्थ - गिहिवत्थं - गृहस्थ का वस्त्र, परिहेड - पहनता है। . . भावार्थ - ११. जो भिक्षु गृहस्थ के वस्त्र को पहनता है या पहनने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - भिक्षु खाद्य, पेय आदि पदार्थों की तरह वस्त्र भी शास्त्र मर्यादानुरूप गृहस्थों . से लेता है, जब तक वे फट न जायं, उनका उपयोग करता है। 'वस्त्र' पाट, बाजोट की तरह प्रातिहारिक रूप में प्रयुक्त नहीं होते। अर्थात् गृहीत कर वापस नहीं लौटाए जा सकते। ऐसा करना साधु समाचारी के विपरीत है, नियमानुबद्ध, समीचीन व्यवस्थाश्रित जीवन के प्रतिकूल है, इससे चर्यात्मक अनुशासन विखंडित होता है, सुव्यवस्थित जीवन प्रत्याहत होता है। अतएव ऐसा करना प्रायश्चित्त का भागी माना गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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