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________________ निशीथ सूत्र संघटक में दो या तीन की तो न्यूनतम संख्या है, उनसे अधिक भी हो सकते हैं। अपने संघाटक - समूह में से एक या एकाधिक साधु किसी दूसरे वैसे समूह में आदान-प्रदान करना भी संघाटक शब्द द्वारा अभिहित होता है। इन सूत्रों में "संघाडयं देड्” तथा “संघाडयं पडिच्छड़" क्रमशः आदान-प्रदान का सूचक है । १०० इस सूत्रों में पार्श्वस्थ आदि को संघाटक देना या उससे लेना दोषपूर्ण और प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। परंपरा वैपरीत्य तथा संयम के परिपालन में उनकी दूषितता, अनुत्साह एवं आचार विरोधी कुत्सित प्रवृत्तियों में निरंतरता, संलग्नता अपने सहवर्ती साधुओं और अपने अनुगामी गृहस्थों के प्रति आसक्ति इत्यादि के कारण उनको संघाटक देना तथा उनसे संघाटक स्वीकार करना दोनों ही परिवर्जनीय हैं। इस परिवर्जन को आदर न देता हुआ जो साधु उपर्युक्त प्रवृत्तियों में लगा रहता है, उसे इन सूत्रों में प्रायश्चित्त का भागी कहा गया है। यहाँ प्रयुक्त पार्श्वस्थ शब्द बड़ा महत्त्वपूर्ण है । “यो ज्ञान-दर्शन- चारित्र- तपसां पार्श्वे - समीपे तिष्ठति न तु तेषामाराधको भवति स पार्श्वस्थः” इस विग्रह के अनुसार जो ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप तप के समीप तो रहता है, उनमें विश्वास तो करता है, किन्तु उनका आचरण नहीं करता, वह पार्श्वस्थ है। इस संदर्भ में शोधार्थी विद्वानों ने विशेष तथ्य भी उद्भासित किया है तेवीसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा के साधु पार्श्वपत्यिक कहे जाते रहे हैं। पार्श्वस्थ संभवतः पार्श्वोपत्यिक का ही द्योतक है। भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा में चातुर्याम धर्म प्रचलित था। भगवान् महावीर स्वामी की परंपरा में पाँच महाव्रतों का स्वीकार था। पार्श्व परंपरा में चतुर्थ और पंचम महाव्रत का अर्थात् ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का चतुर्थ यामअपरिग्रह में ही स्वीकार था । यद्यपि तत्त्वतः दोनों में कोई भेद नहीं था, किन्तु बाह्य दृष्टि से अन्तर परिलक्षित होता था । उत्तराध्ययन सूत्र में कुमार केशिश्रमण और भगवान् महावीर स्वामी के प्रमुख गणधर गौतम के मिलन का प्रसंग है, जहाँ चातुर्याम धर्म और पंच महाव्रतों के भेद की चर्चा है । दोनों की एक ही तथ्यमूलकता को देखते हुए कुमार केशिश्रमण ने पंचम महाव्रतात्मक परंपरा को स्वीकार कर लिया। दोनों संघों में ऐक्य स्थापित हो गया । किन्तु ऐसा होने के पश्चात् भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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