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________________ चतुर्थ उद्देशक - पार्श्वस्थ आदि को संघाटक आदान-प्रदान करने का प्रायश्चित्त १०१ कतिपय स्थानों में पार्वापत्यिक या पार्श्वस्थ साधु दीर्घकाल तक पृथक् विचरणशील रहे। बाह्य आचार विद्या में भगवान् महावीर स्वामी एवं प्रभु पार्श्वनाथ की परंपरा में अन्तर था। यहाँ पार्श्वस्थ शब्द का प्रयोग ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीनकाल में विद्यमान भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा के श्रमणों के लिए हुआ हो, ऐसा भी संभव है। कालान्तर में क्रमशः सभी पार्श्ववर्ती परंपरा के श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की परंपरा में आते गए, उनका पृथक् अस्तित्व नहीं रहा, अतः विवेचन के प्रारंभ में जो व्युत्पत्ति मूलक अर्थ किया है, तदनुसार वर्तमान में यह शब्द उन श्रमणों का सूचक है, जो सिद्धांततः ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप आदि में विश्वास तो रखते हैं, किन्तु जीवन में उनका पालन नहीं करते। 'अव' उपसर्ग और 'सीद्' धातु के योग से अवसाद बनता है, जिसका अर्थ कष्ट पाना, क्लेश अनुभव करना है। अवसाद से तद्धित प्रक्रिया के अन्तर्गत अवसन्न बनता है, जिसका तात्पर्य खेद अनुभव करने वाला है। यहाँ उस भिक्षु को अवसन्न कहा गया है, जिसे संयम का परिपालन करने में कष्ट होता है। कुंत्सित (संयम से विपरीत) आचरण करने वाले को कुशील कहा जाता है। संसक्त का अर्थ यह है कि जो पासत्था आदि से हिलमिल रहे तथा उच्च आचार वाले के साथ उच्च आचार पालें और शिथिल आचार वाले के साथ शिथिल आचार पाले। जैसे "पानी तेरा रंग कैसा? जिसमें मिलाओ जैसा।" नित्यक उस भिक्षु को कहा गया है, जो मासकल्प विहार और चातुर्मासकल्प प्रवास का सम्यक् अनुसरण न करता हुआ किसी एक ही . स्थान पर रहता है अथवा मासकल्प प्रवास के पश्चात् मर्यादित समय तक अन्यत्र न रहकर वहीं रुक जाता है। भिक्षु के लिए रुग्णता, वृद्धावस्था इत्यादि विकल्पों के अतिरिक्त स्वस्थावस्था में एक ही स्थान पर निरन्तर रहना निषिद्ध है। - पूर्ववर्णित तथाकथित श्रमणों को संघाटक देना और लेना इसलिए परिहार्य है कि इससे संयम का शुद्ध रूप में पालन करने वाले साधु की उनके साथ संगति नहीं होती। "संसर्गजा दोष गुणाः भवन्ति" के अनुसार उनकी संगति से दोषोत्पत्ति आशंकित रहती है। ___ भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा के श्रमणों से प्रभु महावीर स्वामी के श्रमणों के आचार में बाह्य भिन्नता होती है। पार्श्वनाथ परंपरावर्ती साधु जहाँ श्वेत एवं पीत दोनों ही वस्त्र धारण करते थे वहीं भगवान् महावीर स्वामी की परंपरा के साधु केवल श्वेत वस्त्र ही पहनते हैं। अन्य विभिन्नताएं भी थीं। अत: यहाँ परिवर्जन किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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