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________________ चतुर्थ उद्देशक - पार्श्वस्थ आदि को संघाटक आदान-प्रदान करने का प्रायश्चित्त ९० विद्यमान भिक्षु को अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र में आस्थावान होते हुए भी उनका परिपालन न करने वाले भिक्षु को संघाड़ा या सिंघाड़ा देता है अर्थात् अपने संघाटक में से एक या दो साधु . देकर उसका सिंघाड़ा बनाता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। २९. जो भिक्षु पार्श्वस्थ से संघाटक प्रतिगृहीत करता है - स्वीकार करता है या लेता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। . ३०. जो भिक्षु संयम में अवसाद युक्त - संयम के परिपालन में कष्ट अनुभव करने वाले भिक्षु को संघाटक देता है अथवा देते हुए का अनुमोदन करता है। ३१. जो भिक्षु संयम में अवसाद युक्त भिक्षु से संघाटक प्रतिगृहीत करता है अथवा प्रतिगृहीत करते हुए का अनुमोदन करता है। ____३२. जो भिक्षु कुत्सित आचार युक्त भिक्षु को संघाटक देता है अथवा देते हुए का अनुमोदन करता है। ३३. जो भिक्षु कुत्सित आचार युक्त भिक्षु से संघाटक प्रतिगृहीत करता है अथवा प्रतिगृहीत करते हुए का अनुमोदन करता है। . ३४. जो भिक्षु निरन्तर एक ही स्थान पर प्रवास करने वाले भिक्षु को संघाटक देता है अथवा देते हुए का अनुमोदन करता है। ३५. जो भिक्षु निरन्तर एक ही स्थान पर प्रवास करने वाले भिक्षु से संघाटक प्रतिगृहीत करता है अथवा प्रतिगृहीत करते हुए का अनुमोदन करता है। . ३६. जो भिक्षु आसक्ति युक्त भिक्षु को संघाटक देता है अथवा देते हुए का अनुमोदन करता है। ..... ३७. जो भिक्षु आसक्ति युक्त भिक्षु से संघाटक प्रतिगृहीत करता है अथवा प्रतिगृहीत करते हुए का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। .. . विवेचन - 'संघाडय' - संघाटक शब्द समुदाय का वाचक है। जैन परंपरा में यह समुदाय विषयक एक विशेष आशय से जुड़ा हुआ है। धर्म प्रसार की दृष्टि से एक गण के अन्तर्गत दो-दो या तीन-तीन साधुओं के छोटे-छोटे समूह निर्धारित कर दिए जाते हैं, जो अपने में से एक के नेतृत्व में मास कल्प विहार एवं चातुर्मासिक प्रवास कल्प के अनुसार साधनारत रहते हैं, जन-जन में धर्म-प्रसार करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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