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________________ ५४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ................. .........00 हो गया। भगवान् के पास दीक्षा लेकर संयम में ऐसा प्रबल पुरुषार्थ किया कि उसी भव में मोक्ष राज्य को प्राप्त कर लिया । डहरा बुड्ढा य पासह, गब्भत्था वि चयंति माणवा । सेणे जह वट्टयं हरे, एवं आउक्खयंमि तुट्टइ ॥ २॥ कठिन शब्दार्थ - डहरा - छोटे बच्चे, बुड्डा माणवा - मानव-मनुष्य, चयंति- छोड़ देते हैं, जह जैसे, सेणे श्येन पक्षी, वट्टयं वर्तक को, हरे - हर लेता है, मार डालता है, आउक्खयंमि आयु क्षय होने पर, तुट्टइ जीवन टूट अर्थात् नष्ट हो जाता है । वृद्ध, पासह- देखो, गब्भत्था - गर्भस्थ बालक, 00000000.....................00 - Jain Education International - - - भावार्थ - श्री ऋषभदेव स्वामी अपने पुत्रों से कहते हैं कि हे पुत्रो ! बालक, वृद्ध, और गर्भस्थ मनुष्य भी अपने जीवन को छोड़ देते हैं यह देखो । जैसे श्येन (बाज ) पक्षी वर्तक ( तीतर) पक्षी को मार डालता है इसी तरह आयु क्षीण होने पर मृत्यु मनुष्य को मार डालती है अर्थात् प्राणी अपने जीवन को छोड़ देते हैं । विवेचन - इस गाथा का सम्बन्ध भी पहली गाथा साथ ही है। मृत्यु कब आती है इसका कोई भरोसा नहीं है। वृद्ध, जवान और बालक को भी मृत्यु आ घेरती है और यहाँ तक की गर्भ में रहे हुए जीव की भी मृत्यु हो जाती है। अतः धर्म करणी करने में जरा भी ढील नहीं करनी चाहिये । मायाहिं पियाहिं लुप्पड़ णो सुलहा सुगई य पेच्चओ । एयाइं भयाइं पेहिया, आरंभा विरमेज्ज सुव्वए ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - मायाहिं पियाहिं माता पिता के द्वारा, लुप्पइ संसार में भ्रमण करता है, एयाई - इन, भयाई - भयों को, पेहिया- देख कर, आरंभा- आरंभ से, विरमेज्ज - विरक्त हो जाय।, = - भावार्थ- कोई माता पिता आदि के स्नेह में पड़ कर संसार में भ्रमण करते हैं । उनको मरने पर सद्गति नहीं प्राप्त होती । सुव्रत पुरुष इन भयों को देखकर आरम्भ से निवृत्त हो जाय । विवेचन - माता-पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु आदि परिवार, के साथ ममत्व रूप स्नेह एक प्रकार का बन्ध (जंजीर) है। यद्यपि यह बन्धन लोह का नहीं है तथापि लोह के बन्धन से भी अधिक मजबूत है। इनके स्नेह में पड़ा हुआ व्यक्ति इनका पोषण करने के लिये धन के उपार्जन के लिये नीच से नीच कार्य भी कर बैठता है जिसके कारण वह दुर्गति में चला जाता है और वहाँ वह अनेक प्रकार के 'दुःख भोगता है अतः बुद्धिमान का कर्तव्य है कि आरम्भ परिग्रह से निवृत्त हो जाय । जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्यंति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाहइ णो तस्स मुच्चेज्जपुट्ठयं ॥ ४॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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