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________________ अध्ययन २ उद्देशक १ ५३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 रहा है। तब भरत राजा ने अपनी अधीनता स्वीकार करने का सन्देश छोटे भाइयों को भेजा तब ९८ छोटे भाई (बाहुबली के सिवाय) भगवान् ऋषभदेव की सेवा में उपस्थित हुए और निवेदन किया कि - हमको राज्य तो आपने दिया है अब भरत अपनी अधीनता स्वीकार करने को कह रहा है सो अब हमें क्या करना चाहिये ? तब सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग भगवान् ऋषभदेव ने उनको उपदेश दिया-संबुझह कि ण बुण्झह ! अर्थात् हे भव्यो ! तुम बोध को प्राप्त करो। क्योंकि बोध का प्राप्त करना बड़ा दुर्लभ है। प्रथम तो मनुष्य भव का मिलना ही कठिन है क्यों कि मनुष्य भव प्राप्त करने में बीच में ग्यारह विकट घाटियों को पार करना अत्यन्त कठिन है। उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन में इन ग्यारह घाटियों का वर्णन इस प्रकार किया है - १. पृथ्वीकाय २. अप्काय ३. तेउकाय ४. वाउकाय ५. वनस्पतिकाय ६. बेइन्द्रिय ७. तेइन्द्रिय ८. चउरिन्द्रिय ९. तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय १०. देवगति और ११. नरक गति इन ११ घाटियों को पार करने में अनन्त काल बीत जाता है। तब कहीं जाकर मनुष्य भव का नम्बर आता है। मनुष्य भव की प्राप्ति हो जाने पर भी दस बातों की प्राप्ति होना दुर्लभ है। १. मनुष्य भव २. आर्य क्षेत्र ३. उत्तम कुल ४. पाञ्चों इन्द्रियाँ परिपूर्ण ५. दीर्घायु ६. नीरोग शरीर ६. साधु पुरुषों का समागम ८. जिन धर्म का श्रवण ९. धर्म पर श्रद्धा आना (सद्धा परम दुल्लहा) १०. धर्म में पुरुषार्थ करना। कहा भी है - आर्य क्षेत्र नरभव सुकुल, पूरण इन्द्रिय स्थान । दीर्घ आयु अरोगता, धर्म जिन देव का ध्यान ॥ शास्त्र श्रवण रुचि धर्म में, संयम में उद्योग। दुर्लभ ये दस बोल हैं, मिले पुण्य के योग ॥ अतएव भव्य जीवों को सम्बोधित किया है कि - चेतन चेतो रे ! चेतन चेतो रे ! दस बोल जीव ने मुश्किल मिलियारे ! चेतन चेतो रे ! भगवान् ने फरमाया कि - यह सांसारिक राज्य और सब सम्पत्तियां क्षण भङ्गुर हैं यथा - . • अर्थाः पादरजोपमाः गिरि नदी वेगोपमं यौवनम् । आयुष्य जललोल बिन्दु चपलं, फेनोपमं जीवनम् ॥ पैरों पर लगी हुई धुली के समान धन है, पहाड़ पर से उतरने वाली नदी के वेग के समान यौवन है, डाभ की अणी के ऊपर रही हुई जल की बून्द के समान चञ्चल आयुष्य है और पानी के बुलबुले के समान जीवन है। संसार की कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। इसलिये सांसारिक राज्य ऋद्धि को छोड़ कर मुक्ति के लिये प्रयत्न करो। मुक्ति का राज्य सदा सदा के लिये स्थिर है। ... इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव की अमृतमय वाणी को सुन कर उन ९८ भाइयों को वैराग्य उत्पन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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