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________________ २८८ . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - अहंकारी पुरुष एकान्त मोह में पड़कर संसार में भ्रमण करता है तथा वह सर्वज्ञ प्रणीत , मार्ग का अनुगामी भी नहीं है एवं जो मानपूजा की प्राप्ति से अभिमान करता है तथा संयम लेकर भी ज्ञान आदि का मद करता है वह वस्तुतः मूर्ख है पण्डित नहीं हैं। विवेचन - मद आठ प्रकार के कहे गए हैं यथा - जाति मद, कुल मद, रूप मद, बल मद, .. श्रुत मद, ऐश्वर्य मद, तप मद, लाभ मद। मुनि को इन आठ मदों में से किसी प्रकार का मद नहीं. करना चाहिए। जे माहणे खत्तिय-जायए वा, तहुग्ग-पुत्ते तह लेच्छई वा । जे पव्वइए परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थब्भइ माण-बद्धे ।।१० ॥ कठिन शब्दार्थ - माहणे - ब्राह्मण, खत्तियजायए - क्षत्रिय जाति वाला, उग्गपुत्ते - उग्रपुत्र, लेच्छई - लिच्छवी, परदत्तभोई - परदत्तभोजी-दूसरे का दिया हुआ आहार खाने वाला, गोत्ते - गोत्र का, थब्भइ - मद करता है, माणबद्धे- अभिमान युक्त हो कर । भावार्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र अथवा लिच्छवी वंश का क्षत्रिय जाति वाला जो पुरुष दीक्षा लेकर दूसरे का दिया हुआ आहार खाता है और अपने उच्च गोत्र का अभिमान नहीं करता है वही पुरुष सर्वज्ञ के मार्ग का अनुगामी है । - विवेचन - जो पुरुष विशिष्ट कुल में उत्पन्न होने के कारण सब लोगों का माननीय होता है। उसे : दीक्षा लेकर कदापि गर्व नहीं करना चाहिए। ण तस्स जाई व कुलं व ताणं, णण्णत्थ विज्जाचरणं सच्चिणं । । णिक्खम्म से सेवइग्गारिकम्मं, ण से पारए होइ पिमोयणाए ॥११ ॥ कठिन शब्दार्थ - ताणं - त्राण रूप, विजाचरणं - ज्ञान और चारित्र, सुच्चिण्णं - सुआचरित, णिक्खम्म - निष्क्रमण कर, अगारिक्रम्मं - गृहस्थ कर्म का, पारए - पार जाने में समर्थ, विमोयणाए - विमुक्ति-कर्मों के क्षय के लिये । ___ भावार्थ - जाति और कुल मनुष्य को दुर्गति से नहीं बचा सकते । वस्तुतः अच्छी तरह सेवन किये हुए ज्ञान और चारित्र के सिवाय दूसरी कोई वस्तु भी मनुष्य को दुःख से नहीं बचा सकती है । जो मनुष्य प्रव्रज्या लेकर भी फिर गृहस्थ के कर्मों का सेवन करता है वह अपने कर्मों को क्षय करने में समर्थ नहीं होता है । विवेचन - सम्यग्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये मोक्ष के. मार्ग हैं यही त्राण और शरण रूप है एवं आत्मा का कल्याण करने वाला है। जाति मद आदि मद तो आत्मा का पतन करने वाले हैं। इसलिए मुनि को इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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