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________________ अध्ययन १३ २८७ विवेचन - ऊपर की गाथा में कहे हुए दोषों से रहित जो साधु है वह सच्चा साधु है अर्थात् क्रोध न करने वाला गुरु का नाम न छिपाने वाला, शांत, कषाय की उदीरणा न करने वाला, माया, कपट से रहित, अनाचार सेवन से लज्जित होने वाला और गुरु की सेवा करने वाला वह सच्चा साधु है। से पेसले सुहुमे पुरिसजाए, जच्चण्णिए चेव सुउज्जुयारे । बहुं पि अणुसासिए जे तहच्चा, समे हु से होइ अझंझ पत्ते ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - पेसले - पेशल-प्रिय, जच्चण्णिए - उत्तम जाति वाला, सुरज्जुपारे - संयम पालन करने वाला, अणुसासिए - अनुशासित होने पर, तहच्चा - शांत चित्त वाला। . भावार्थ - किसी विषय में प्रमादवश भूल हो जाने के कारण जो गुरु आदि के द्वारा शिक्षा दिया हुआ चित्तवृत्ति को पवित्र रखता है अर्थात् क्रोध न करता हुआ फिर शुद्ध संयम पालन में प्रवृत्त हो जाता है वही विनयादि गुणों से युक्त है तथा वही सूक्ष्म अर्थ को देखने वाला और पुरुषार्थ करने वाला है एवं वही जातिसम्पन्न और संयम को पालने वाला है । वह पुरुष वीतराग पुरुषों के समान मानने योग्य है । जे यावि अप्पं वसुमंति मत्ता, संखाय-वायं अपरिक्ख कुज्जा। तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता, अण्णं जणं पस्सइ बिंब भूयं ।।८ ॥ .. कठिन शब्दार्थ - वसुमंति - वसुमान्-संयम रूपी धन से युक्त-संयमी, संखायवायं - संख्यावान्-ज्ञानी, मत्ता - मान कर, अपरिक्ख - बिना परीक्षा किये, तवेण - तपस्या से, अण्णं - . दूसरे को, पस्सइ - देखता है, बिंबभूयं - प्रतिबिम्ब भूत ।। भावार्थ:- जो अपने को संयमी, ज्ञानवान् और तपस्वी मानता हुआ अपनी बड़ाई करता है और दूसरे को जल में पड़े हुए चन्द्रबिम्ब के समान निरर्थक देखता है वह अभिमानी जीव अविवेकी है । - विवेचन - मुनि को किसी बात का अभिमान नहीं करना चाहिए किन्तु जो अपने आप को ज्ञानी, तपस्वी मानकर दूसरों को जल चन्द्र की तरह तथा नकली सिक्के की तरह निःसार मानता है वह अविवेकी है। ऐसे पुरुष को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। एगंत-कूडेण उ से पलेइ, ण विजई मोण-पयंसि गोत्ते । जे माणणद्वेण विउकासेग्जा, वसुमण्णतरेण अबुज्झमाणे ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - एगंतकूडेण - एकान्त रूप से मोह में फंस कर, पलेइ - भ्रमण करता है, मोणपयंसि - मुनि पद में-सर्वज्ञ के मत में, गोत्ते - गोत्र, माणणद्वेण - मान-पूजा के लिये, विठक्कसेजा - मद करने वाला, वसुमण्णतरेण - संयम पालन करते हुए, अबुझमाणे - परमार्थ को नहीं जानने वाला-अज्ञानी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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