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________________ 73. कुलिसाउहचक्कधरा सुहोव ओगप्पगेहिं भोगेहिं । देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा ।। कुलिसाउहचक्कधरा [ ( कुलिसाउह) - (चक्कधर ) 1/2 वि] सुहोओगप्पगेहिं भोगेहिं देहादीणं विद्धि करेंति सुहिदा इवाभिरदा [(सुह) + (उवओगप्पग)] [(सुह) - ( उवओगप्पग) 3/2 fa] Jain Education International (भोग) 3/2 [(देह) + (आदीणं)] [(देह) - (आदि) 6/2] (fafa) 2/1 (कर) व 3/2 सक (सुहिद) 1/2 वि [(इव) + (अभिरदा)] इव (अ) = मानो अभिरदा (अभिरद) भूकृ 1/2 अनि वज्रायुध धारण करनेवाले तथा चक्र धारण करनेवाले शुभ उपयोगस्वभाववाले होने के कारण धन-सम्पत्ति से शरीर तथा इससे सम्बन्धित अन्य वस्तुओं की बढ़ोतरी करते हैं सुखी अन्वय- कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं देहादीणं विद्धिं करेंति अभिरदा इव सुहिदा । अर्थ- वज्रायुध धारण करनेवाले (इन्द्र) तथा चक्र धारण करनेवाले. (चक्रवर्ती) शुभ उपयोगस्वभाववाले होने के कारण धन-सम्पत्ति से शरीर तथा इससे सम्बन्धित अन्य वस्तुओं की बढ़ोतरी करते हैं (और) (उनमें ) अत्यन्त आसक्त (रहते हैं) मानो (वे) (अमिट रूप से) सुखी ( हैं ) । प्रवचनसार (खण्ड-1) For Personal & Private Use Only मानो अत्यन्त आसक्त (85) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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