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________________ - 74. जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि। जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं।। संति पुण्य अव्यय यदि . (संति) व 3/2 अक अनि विद्यमान हैं. अव्यय निश्चय ही पुण्णाणि (पुण्ण) 1/2 अव्यय • पादपूर्ति .. . परिणामसमुब्भवाणि' [(परिणाम)-(समुब्भव) . परिणाम से उत्पन्न 1/2 वि] विविहाणि (विविह) 1/2 वि नाना प्रकार के ... जणयंति (जणय) व 3/2 सक अनि । उत्पन्न करते हैं विसयतण्हं [(विसय)-(तण्हा) विषय-तृष्णा. 2/1] जीवाणं (जीव) 6/2 , जीवों में देवदंताणं [(देवदा)+(अंताणं)] [(देवदा)-(अंत) 6/2] देवों तक के अन्वय- जदि य परिणामसमुन्भवाणि विविहाणि पुण्णाणि संति देवदंताणं जीवाणं विसयतण्हं हि जणयंति। अर्थ- यदि (शुभोपयोगरूप) परिणाम से उत्पन्न नाना प्रकार के पुण्य विद्यमान हैं (तो) (वे) (पुण्य) देवों तक के (सभी) जीवों में विषय-तृष्णा निश्चय ही उत्पन्न करते हैं (करेंगे ही)। 1. यहाँ ‘समुन्भव' शब्द का प्रयोग नपुंसकलिंग के रूप में हुआ है, जबकि कोश में 'समुभव' पुलिंग शब्द बताया गया है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (86) प्रवचनसार (खण्ड-1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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