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________________ 72. णरणारयतिरियसुरा भजति जदि देहसंभवं दक्खं। किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं।। जदि दुक्खं णरणारयतिरियसुरा [(णर)-(णारय) वि (तिरिय)-(सुर) 1/2] भजंति (भज) व 3/2 सक अव्यय देहसंभवं [(देह)-(संभव) 2/1 वि] (दुक्ख) 2/1 अव्यय . (त) 1/1 सवि (सुह) 1/1 वि अव्यय असुहो (असुह) 1/1 वि उवओगो (उवओग) 1/1 (हव) व 3/1 अक जीवाणं (जीव) 4/2 मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव भोगते हैं यदि . देह से उत्पन्न दुःख को कैसे ... वह .. शुभ तथा अशुभ उपयोग किह सो . व हवदि * होगा जीवों के लिए अन्वय- जदि णरणारयतिरियसुरा देहसंभवं दुक्खं भजति जीवाणं सो उवओगो सुहो व असुहो किह हवदि। अर्थ- यदि मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव (ये सभी) देह से (ही) उत्पन्न दुःख को भोगते हैं (तो) जीवों के लिए (प्रतिपादित) वह उपयोग शुभ तथा अशुभ कैसे होगा? 1. 2. यहाँ 'संभव' शब्द विशेषण की तरह प्रयुक्त हुआ है। प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता (84) प्रवचनसार (खण्ड-1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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